गुरुवार, 5 मार्च 2009

किसी ने कहा 'स्लम कुत्ते'?

हाल तक स्लमडॉग मिलीनेयर को लेकर देश में काफी चर्चा रही खासकर फिल्म इंडस्ट्री और न्यूज मीडिया में, बाद में हॉलीवुड सबसे बड़े पुरस्कार और दुनिया भर में प्रसिद्ध ऑस्कर अवार्ड के आठ श्रेणियों का पुरस्कार पाने के बाद तो चर्चा संसद तक जा पहुंची, अब चुंकि संसद के कार्यवाही का सीधा प्रसारण लोकसभा टीवी के माध्यम से होता है और लोकतंत्र में जनता की आवाज उसके चुनें प्रतिनीधि होते हैं इस तर्क से ये मान लेना चाहिए कि बात अब गांव मुहल्लों तक पहुंच गई है।
बात शुरूआत से, स्लमडॉग पर बच्चन साहब की भी प्रतिक्रिया आयी और फिर प्रियदर्शन की भी और भी बड़े दिग्गजों ने अपनी नाराजगी कई कारणो से जतायी कि ऐसी फिल्म नहीं बननी चाहिए या फिर ऐसा कुछ खास नहीं है जिसकी तारीफ की जाए। मैं इसका विरोध करता हूं। एक फिल्म जब कहानी के बल पर धूम मचाती चली आ रही हो और कम से कम मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसने इसके निर्माण और कंटेंट पर सवाल खड़े किया हो सिवाय इसके कि इसकी सफलता से कही ना कहीं चिढ़े कुढ़े बड़े लोगों की अखबारों में रियेक्शन पढ़कर बयान जारी करने वाले को।
देश की तस्वीर गलत तरीके से दिखाया गया, पश्चिमी मीडिया हमारे यहां सिर्फ गरीबी देखता है। तमाम ऐसे बकवास जिसकी जरूरत नहीं है। ना जाने कितनी ऐसी फिल्में हं जिनमें धारावी के चॉल दिखाया गया है। क्या मदर इंडिया में गरीबी और उसका शोषण नहीं दिखाया गया था? क्या काला पत्थर में खान मजदूरों के साथ होने वाली ज्यादती नहीं दिखायी गई थी?ये भी तो भारत के ही दृश्य थे।कश्मीर पर ऐसी कई फिल्में बनी हैं जिनमें सेना पर सीधे तौर पर सवाल खड़ा होता है वो भला खालिद महमूद की फिज़ा ही क्यों ना हो, यहां तक की गुलजार साहब की फिल्म माचिस भी पंजाब आतंकवाद के दौरान पुलिस के क्रियाकलाप को जाहिर करती है। हाल ही में रीलिज अ वेडनसडे ने आतंकवाद के प्रति सरकार की उदासीनता दिखायी और फिर मुंबई मेरी जान में न्यूज चैनलों के खबर को लेकर संवेदनहीनता को दिखाया गया तो क्या ऐसे में इनमें फिल्मों को नहीं बनना चाहिए।
लेकिन ये भी तो सच है कि धारावी एशिया की सबसे बड़ी चॉल है और फिल्म शूट करने के लिहाजा से मुफीद जगह भी है क्योंकि यहां ना जाने कितने संघर्षशील कलाकर भी रहते हैं। तो सवाल खड़ा होता है कि फिल्म की क्या जरूरत है? अब एक फिल्म में एक गरीब बच्चा अपनी गरीबी के अनुभव से कोई करोड़ रूपये जीत लेता है तो इस पर किसी को क्या आपत्ति है। इसमें ऐसा कौन सा सिस्टम फ्ल्योर दिखा दिया कि हाय तौबा मच गया। दरअसल हमारी इंडस्ट्री नए प्रयोगों से कतराती है। यूटीवी सरीखी कुछ एक कंपनियां हैं जो लीक तोड़ने का माद्दा रखती हैं। लेकिन सितारों की माया से बाहर निकलना फिलवक्त मुश्किल है।
मजेदार बात तो ये है कि संसद में स्लमडॉग और स्माइल पिंकी के आस्कर जीतने पर मेजे थपथपाई गई, सिर्फ इसलिए कि वो भारत के संदर्भ में बनी हैं शायद। नहीं तो भारत से इसका क्या वास्ता? और रही बात स्माइल पिंकी की, तो ये डॉक्युमेंट्री देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का ही पोल खोलती है। वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पराशर ने इस पर गजब की चुटकी ली है।
जाते जाते फिल्म रे नाम स्लमडॉग पर भी लोगों ने झुग्गी वासियों को भड़काया, और वे स्लम में रहने वालों को कुत्ता बताने पर उबल पड़े और कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, फिलहाल मामला शांत है शायद किसी ने उन्हें बताया होगा कि स्लमडॉग अंग्रेजी का एक ही शब्द है। इसका कुत्ते से कुछ लेना देना नहीं है, जैसा कि मुझे भी मेरे मित्र ने बताया।

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