रविवार, 15 मार्च 2009

सिस्टम का मरहम

मेरे मामा के लड़के का एक ही उद्देश्य था, फौज में नौकरी कर देश की सेवा करना और उन तमाम देशद्रोही ताकतों को उखाड़ फेंकना जिनसे देश के भविष्य को नुकसान पहुंचता हो। लेकिन ये दिन उसके सपने, उद्देश्य, मंजिल के लिए उसके लगन का आखिरी दिन साबित हुआ।
देश का एक बहुत बड़ा तबका है जो बहुत कुछ बदलना चाहता है, लेकिन देश की मरहम लगाओ राजनीति के आगे उसका गुस्सा दब जाता है। इसे समझना जरा मुश्किल है, सो ये पंक्तियां पढ़िए---हमारे देश की सरकार बहुत चलाक है वो पहले समस्या खड़ी करती है, न्याय की आस में जमा लोगों पर लाठीचार्ज करती है, दो तीन सरकारी मुलाजिमों को बर्खास्त करती है और फिर जनता की तरफ से कोर्ट में याचिका दायर करती है न्याय के लिए...

२७ नवम्बर २००८ को हमारी अवसरवादी राजनीतिक की भटक चुकी सोच की उपज आतंकवाद ने मुम्बई पर हमला किया, तीन दिनों तक हमारा तंत्र उन दस दुस्साहसी नौजवानों से जूझता रहा जिसका सीधा प्रसारण हम टेलिवीजन पर देख रहे थे। जनता के सब्र की बाधा टूट गया राजनीति के प्रति नफरत का इजहार किया जाने लगा। मेरे मामा का लड़का भी इससे दुखी था वो लगातार गालियां बके जा रहा था। ऐसे नहीं वैसे होना चाहिए था, सरकार पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर रही है। अबतक तो जमींदोज कर देना चाहिए तमाम ऐसी बातें जो एक आम आदमी करता है। जो बातें देश के तमाम जगहों पर वो आम आदमी कर रहा था, इंडिया गेट और गेट वे ऑफ इंडिया पर खास कर। मेरा भाई भी ऐसी ही स्थिति में था चूंकि मैं उसके साथ था, तो उसे थोड़ी बहुत अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और युद्ध समस्या का समाधान नहीं है समझा रहा था। लेकिन नौजवान खून की भड़ास ललकार रही थी मानों वो एनएसजी का कमांडो होता ( जैसे की उसका उद्देश्य था) तो वो अपनी गन से पहले ही दिन सबकुछ खत्म कर देता। लेकिन ये मुमकीन नहीं था, और ये वो जल्दी ही समझ गया...इसकी सबसे बड़ी वजह इस पूरे प्रकरण में सिस्टम की तौर तरीका था तो दूसरी वजह समस्या की जड़ को पनपने देने की हमारी नीतियों की खामियां थी जो उस दौरान बात बात में मैं उसे समझा रहा था। और तीसरी वजह जो उसके सपने को तार तार कर गई वो दो पिक्चर हैं ...
एक में हमले में बचाये गए लोगों को लग्जरी बस से ले जाया जा रहा है तो दूसरी में घंटों चले ऑपरेशन के खत्म होने के बाद एनएसजी कमांडो बेस्ट की बस में अगले मिशन के इंतजार में वापस जा रहा है। बस मेरा भाई इसी पर उबल पड़ा और उसके सपने उसकी मंजिल का ये आखिरी दिन साबित हुआ।
वो आज भी मुझसे पूछता है किछ क्या सरकार के पास इतना पैसा नहीं था कि उन कमांडोज को अच्छी आरामदायक बस में वापस भेजते? जबकि दिल्ली से ये कमांडो सुबह चार बजे जागकर एअरपोर्ट पहुंचे थे जहां उनके मुम्बई आने के लिए फ्लाइट की व्यवस्था नहीं थी तो क्या उन्हें अपने स्टेशन पर आराम करने की व्यवस्था नहीं की जा सकती थी क्योंकि सामने की चुनौती के बारे में सभी को मालूम था। उसके गहरे जख्मों ने कहा, पुलिस को पैरा मिलिट्री फोर्स को और फौज को अपनी जागीर समझने वाली व्यवस्था को बदलना होगा। जनता को भेड़ बकरी समझने वाली सरकार को बदलना होगा।
लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसके जख्म यूं ही हरे रहेंगे, व्यवस्था उसके जख्म पर कब मरहम लगा देगी मुझे उसका इंताजार है।






2 टिप्‍पणियां:

  1. अविनाश भाई क्या बात है इतने दिनों बाद इस बात का दर्द हुआ जब ममेरे भाई की भड़ास का सामना हुआ.... इस विषय पर भड़ास पर कुछ आपके ही अंदाज में फ़रहीन नाज ने भी लिखा था।

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  2. Jajbaton men dhar hai, banaye rakhen !!
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    गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

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