शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

मुंशी प्रेमचंद का हामिद और कसाब

३१ मार्च के तहलका हिन्दी संस्करण में प्रकाशित ...
बीसवीं सदी के शुरूआती सालों का दौर था। तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान अलग अलग मुल्क नहीं थे। अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम हमारे मुल्क की सामाजिक आर्थिक हालात बनारस से लेकर लाहौर तक एक ही थे। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद बमुश्किल ही हालात में कोई तब्दीली आई हो सिवाय इसके कि हम आज़ाद थे, लेकिन दो मुल्कों में बंटे हुए । जाते वक्‍त के साथ हालात में इतनी और तब्दीली आयी कि सरदार अली ज़ाफरी ने लिखा कि तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश, हम आए सुबह-ए-बनारस की रौशनी लेकर, फिर ये पूछें कौन दुश्मन है?
करीब नब्बे साल पहले एक कहानी बनारस में लिखी गई थी, जो आज नब्बे साल बाद लाहौर के करीब फरीदकोट से ना सिर्फ जुड़ती है बल्कि तमाम सवाल भी खड़ा करती है।
मुंशी प्रेमचंद की इस कहानी का नाम है ईदगाह,जिसमें एक गरीब सूरत, दुबला-पतला बच्चा है हामिद,जो अपनी दादी अमीना के साथ रहता है। हामिद का बाप हैजे की भेंट चढ़ जाता है और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था?
हामिद को बूढ़ी दादी ने भरोसा दिला रखा है उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। इसपर प्रेमचंद लिखते हैं आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह खुश है।रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद जब ईद आती है तो वो और खुश हो जाता है।
ऐसी ही परिस्थितियां अजमल कसाब (सत्ताइस नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले में शामिल) के सामने थी जब उसने घर छोड़ने का इरादा किया, बकौल अजमल के पिता आमिर कसाब अजमल को ईद के दिन नये कपड़े नहीं मिले, तो बस अजमल घर से चल गया। मुंशी प्रेमचंद की कहानी में भी आर्थिक तंगहाली और सामाजिक जरूरत की वजह से हामिद की दादी अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रोती है और बड़ी मुश्किल से मासूम हामिद को तीन पैसे दे पाती है, ईदगाह जाने और वहां कुछ खरीदने खर्च करने के लिए। पर हामिद है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाता।
दादी ने हामिद को बताया है कि उसके अब्बा कमाने गए हैं और जल्दी ही ढ़ेर सारे रूपये लेकर आएंगे। बनारस के जिस गांव लमही के मुंशी प्रेमचंद रहने वाले थे उससे आजमगढ़ कोई बीस पच्चीस किमी ही दूर होगा लेकिन बीते दशक में यदि रोजगार के लिए जिस ज़िले से पश्चिम एशिया सबसे ज्यादा लोग गए तो वो आज़मगढ़ है। ये इस बात की तस्दीक करता है कि तब और अब में फासला महज वक्त का है, और बाकी सब जस का तस है।
अजमल कसाब भी किसी से नए कपड़े मांगने नहीं गया. उसने भी किसी के मिजाज़ नहीं सहे, लेकिन उसने वो रस्ता चुना जिस को नब्बे साल के दौरान हमारे हुक्मरानों ने तैयार किया है। मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह में हामिद ने अपनी दादी के हाथ जलने से बचाने के लिए चिमटा खरीद लिया। शायद अजमल के कुकृत्य के पीछे भी ऐसा ही कुछ था.खबरों के मुताबिक काम खत्म होने के बाद कसाब के परिवार को डेढ़ लाख रूपये मिलने तय हुए थे। लेकिन ये कहानी और चिमटे की बात होती तो कोई बात थी। ये रूपये तो अपने घर की दशा सुधारने के लिए एक महाघृणित कार्य के ज़रिये कसाब के परिवार को मिलने थे। सामाजिक और आर्थिक परिवेश में तो कोई बदलाव नहीं आया वरन राजनीतिक परिवेश में आतंकवाद का मोहरा जरूर नया है जिसके एक चाल से ईद का सदभाव, इंसान का विवेक, मोहब्बत सबकुछ तिनके की तरह उड़ता रहा है।

मुंशी प्रेमचंद कहानी के अंत में लिखते हैं-अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!
कसाब भी शायद कुछ रहस्यों को नहीं समझ पाता, उसकी नजर पर लगे बेरोजगारी और सामाजिक असमानता का चश्मा उसे आंतकवादी बना देती हैं। कमोबेस ये हालात हर जगह है चाहे वो आजमगढ़ का हो बनारस का मुंबई का या लाहौर का हो। इक्सीवीं सदी के इन शुरूआती वर्षो में बनारस से लेकर लाहौर तक हालात में कोई खास फर्क नहीं है।कभी ये दोनों एक थे फिर दो मुल्क हुए और अब दुश्मन हैं, अब हैजे ने आंतकवाद का रूप ले लिया है तो पीलिया ने नफरत का और गरीबी ने तो वही रूप आज भी अपना रखा है। ऐसे सवाल खड़ा होता है कि मुंशी प्रेमचंद का हामिद अगर आज होता तो क्या करता? कसाब और सलेम को सही नही मानता लेकिन उनके जैसा बनने के लिए उकसाने वाले हालात भी तो खलनायक हैं।
एक बात और जेहन में कौंधती है कि मुंशी प्रेमचंद आज के दौर में ईदगाह को फिर से लिख रहे होते तो वो इस कहानी को क्या अंत देते। ख्याल कीजिए कि ईदगाह में हामिद की मुलाकात लश्कर के किसी कमांडर से हो जाती तो?

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