शनिवार, 26 सितंबर 2009

एक लैंडस्केप की तैयारी



“इस बात का दर्दनाक अहसास आजकल सबको है कि राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत एक बनता हुआ मकान है. कोई नहीं जानता कि पूरा बन चुकने के बाद वह कैसा दिखेगा, कि वह बनते-बनते ढह तो नहीं जाएगा, कि अंतत: वह एक मकान होगा या कई बंगलों वाली कॉलोनी होगा या गंद से बजबजाता झुग्गी-झोपड़ी नगर होगा” ये पंक्तियां राजेन्द्र माथुर के एक लेख २०५७ के राष्ट्र-राज्य में बदलता १८५७ का समाज में दर्ज हैं, रज्जू बाबू ने जब यह लेख लिखा होगा भारत अपने युवावस्था में था और आज हमरा देश ६२ साल का हो गया है. लेकिन रज्जू बाबू का सवाल आज भी मौजूद है. एक तरफ तो २०१० के कॉमनवेलथ गेम्स की मेजबानी को लिए सज रही राजधानी है तो दूसरी तरफ सैकड़ो गांव कस्बे हैं जहां जरूरी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं है. क्या वाकई में हम जहां से चले थे अभी तक वहीं हैं, या फिर बजबजाते झुग्गी-झोपड़ियों के बीच कई बंगलों वाली चंद कॉलोनियों, मकान के नाम पर, इन ६२ सालों के बाद हमारी कुल जमा मुनाफा है.
सवाल बहुत दर्दनाक है और ऐसा नहीं है कि इसका अहसास सिर्फ मुझ को है, सैकड़ों ऐसे सिरफिरे hain.
इससे पहले कि उन और लोगों का जिक्र करूं रज्जू बाबू के इस लेख का समापन “आज के हिन्दुस्तान के सारे संकटों का राज शायद यह है कि हमारे पास १८५७ का सामाजिक हिन्दुस्तान है, जिसे शहरों ने, उद्योग धंधों ने, हरित क्रांति ने और लोकतंत्र के रासायनिक युद्ध ने बुरी तरह बदल दिया है और हमारे पास २०५७ का राजनीतिक हिन्दुस्तान है, जिसके अनुरूप न हमारा समाज ढला है, न जिसके साथ एकाकार होने के लिए हमारे पास संस्थाएं हैं. किसी बौने को किसी दैत्य के शरीर की तरह में आप समूचा प्रत्यारोपित कर दें और फिर उसके हाथ तुरंत लंबे हो जाए, उसका सीना चौड़ा हो जाए उसका रक्त प्रवाह मीलों लम्बी धमनियों के बीच उतना ही वेगवान हो जाए, तो बेचारे बौने को कितनी यातना भुगतनी पड़ेगी अंग्रेज एक लंबा ओवर कोट १५ अगस्त १९४७ को एक खूंटी पर टांग गए थे. जो हमारे नाप का नहीं था. अब चालीस साल से हम बेतहाशा व्यस्त हैं कि हमारा शरीर इतना बढ़ जाए कि हम उस कोट को बेडौल दिखे बगैर पहन सकें. इस प्रयास विचित्र जरूर है, लेकिन भारत के करोड़ों पढ़े लिखे लोगों ने इस प्रयास को अपने प्राणों से अधिक महत्वपूर्ण मान रखा है”.
हां! तो इस बात का सैकड़ों लोगों को कई इसके अंजाम पर चर्चा में शामिल हैं तो कई जमीन पर इस दर्द के मद्देनजर अपनी भूमिका तय कर रहे हैं, मेरी कोशिश सिर्फ इतनी है कि क्या इस दर्दनाक अहसास को साझा किया जा सकता है. क्या चंद मकानों वाले कॉलोनियों और बजबजाते झुग्गी झोपड़ियों से इतर हिन्दुस्तान के लोगों को एक मकान मिल सकता है? अंग्रेजों के छोड़े ओवरकोट के इतर कोई ऐसी सरकार मिल सकती है जो ना निरंकुश हो ना ही कुशासक. मेरे इस मकान को माया-मुलायम, लालू-मोदी जैसे कुशासकों से भय है, मेरे इस मकान को मनमोहन के नौकरशाहों और कांग्रेस के सिंडीकेटों के निरंकुशता से भय है.

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