शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

धूप और साल को नमस्ते


जैसे आंगन से रोज

आकर धूप चला जाती है,

वैसे ही ज़िंदगी से हर साल

एक साल चला जाता है...


जैसे अलसुबह की अंगड़ाई

धूप की गर्मी से उखड़ जाती है

वैसे ही जीवन का सफर

हर साल बढ़ चला जाता है...


जैसे दिन का पहर

धूप के जाने के साथ ढ़ल जाता है

वैसे ज़िंदगी का एक पन्ना

गुजरते साल के साथ साफ हो जाता है...


अगली धूप और अगले साल को

नमस्ते!!!!!

सोमवार, 16 अगस्त 2010

रिशता


पीपल की नई कोंपले और सरसों के खेत का पीला होना
हवाओं की अठखेलियां और उसके पुरवाई में फूलों का इतराना
उतरते जाड़े का स्पर्श
और जाते ठंड में गुनगुनाना
गुनगुनी धूप की गुदगुदाहट और उसके नर्म घास पर नंगे पांव चलना
शरीर का अल्हड़पन और उसके दिल का गुलाबी होना
सांसों की गरमी का बढ़ना और उसका तेजी से चलना हां ये बसंत है ..
पिया बसंत रे शहर के तड़क भड़क में आ जा
और उसके कमरे में समा जा उसकी खिड़कियों को आवाज दे जा
वहां रहने वालों को बता जा तू बसंत है
जीवन से तेरा ये रिशता है

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कुछ मालूम करने की कोशिश क्रांति है

हमारे देश में दरअसल कुछ होता ही नहीं है...और यदि बहुत कुछ होता है तो वह है चुनाव जो हमें लोकतांत्रिक देश होने का आभास कराते हैं...यथास्थिति से ऊबा हमारा देश कभी पाकिस्तान से आतंकी हमले में ही बहल जाता है तो कभी नक्सली हमलों में उलझ जाता है. हाल फिलहाल में इलेक्ट्रानिक मीडिया की चटपटी खबरों का टीमटाम देखकर हमारे देश की ऊबायी दूर हो जाती है, वरना बताइये ना ऐसा क्या हो रहा है जो पिछले साठ सालों में हमें उन किसी एक समस्या से निजात दिलाता हो जिससे जनता त्रस्त रही हो.
महज महीने भर में ही दो ऐसी घटनाए हुई जो सीधे जनता से जुड़ी थी, लेकिन ये होना ना होने से भी बदतर है, पहला शाहरूख खान की फिल्म माय नेम इज खान के रिलिज के साथ हुई, उस दिन दूध का दाम दो रूपये बढ़ गया और किसी ने इस पर कोई तवज्जो नहीं दी, दूसरी सानिया मिर्जा की शादी के खबर वाले दिन यूपी दिल्ली समेत कई राज्यों में बिजली की दरें बढ़ाई गयीं, लेकिन ना किसी राजनीतिक दल, ना किसी समाजिक संगठन और ना ही मीडिया में इस बात का जिक्र हुआ, दरअसल देश में उस दिन बहुत कुछ और हो रहा था.
हम चीन के करीब जाए कि अमेरिका के साथ रहे सरकार को मालूम ही नहीं है, सत्तासीन कांग्रेस को मालूम ही नहीं कि यूपी में मुलायम के साथ रहे कि मायावती के, भाजपा को मालूम ही नहीं अटल के बाद क्या करे आडवाणी खेमे के साथ रहे कि संघ के सानिध्य में, समाजवादीयों को मालूम नहीं कि वो कभी एक हो पाएंगे या नहीं और हो भी गए तो किसके साथ खड़े होंगे वामपंथीयों के साथ या फिर भाजपाईयों के साथ, उधर भारतीय राजनीति की नई धूरी बनती मायावती को मालूम नहीं कि सर्वसमाज पर भरोसा करे कि बहुजन समाज पर.
वामपंथी नेता कहते हैं कि जब जनता जाग जाएगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाएगी, तब क्रांति हो जाएगी. लेकिन जनता जागेगी कैसे उन्हें मालूम नहीं है. कांग्रेसी नेता कहते है कि कांग्रेस को इतिहास देश का इतिहास रहा है लेकिन देश का भविष्य कैसा हो ये उन्हें मालूम नहीं है.भाजपाइ कहते हैं कि परम्परा को बचाने के लिए परिवर्तन जरूरी है, लेकिन परिवर्तन कैसे हो उन्हें मालूम ही नहीं. और समाजवादी कहते ही हैं कि समाजवाद धीरे धीरे आएगा लेकिन कब ये उन्हें मालूम नहीं है.
हमारे देश को यह भी मालूम नहीं है कि स्नातक करने के बाद वो क्या करेगा. विडंबना ये नहीं है कि हमें मालूम ही नहीं कि हमें क्या करना है? विडंबना ये है कि हम मालूम करने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि बीसीसीआई का क्रिकेट बाजार क्या है,कोड़ा का चार सौ करोड़ का घपला क्यों हुआ, राहुल गांधी का दलित प्रेम सिर्फ उत्तर प्रदेश में क्यों दिखता है, फूड फॉर ऑयल में मामले में क्या हुआ, लालू के खिलाफ सीबीआई ने कोर्ट में याचिका क्यों नहीं डाली, कथित रेड कॉरिडोर के आदिवासी नक्सलीयों को समर्थन क्यों दे रहे हैं, टाटा बिरला अंबानी को मुनाफा और पीएसयू को घाटा कैसे होता है, अमेरिका और चीन पाकिस्तान को हथियार क्यों देते हैं, दरअसल हर घटना या फिर कुछ होना हमारे लिए अगले ही दिन ना होने की तरह है. किसी ने कहा है कि ज़िंदा कौम इंतजार नहीं करती है और हमारी कुछ भी मालूम ना होने की स्थिति इस बात की तस्दीक करती है.इसी उदाहरण को हम बरास्ता मीडिया के समझे तो कल के अखबार की खबर को बासी समझने की हमारी सोच इस देश में कुछ होने के विचार को कुंद कर देती है, यही वजह है कि बाजार की दौड़ में बने रहने के लिए हमारी टीवी मीडिया भी टीमटामियां खबरों को चुनने के लिए विवश होती है. ऐसे में कहना गलत ना होगा कि इस सोच के आगे सारे वाद खोखले हैं और लोकतंत्र आत्मसंतोष जो असल में आत्महत्या है.
इस आत्महत्या से बचने के लिए हमें कुछ मालूम करने की कोशिश करने होगी और जिस दिन हम मालूम कर लेंगे कि हमें करना क्या है सच जानइये हमारे देश में बहुत कुछ होगा, कुछ लोग उसे क्रांति कहेंगे और कुछ लोग परिवर्तन.

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

आपातकाल का विचार कैसा रहेगा सर?

वैसे तो मंहगाई को लेकर बौद्धिक चर्चा और विपक्षी खेमे की राजनीतिक पैंतरेबाजी मनमोहन सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत से ही जारी है, लेकिन जनता है कि बोलने को तैयार ही नहीं है. चीनी के चक्कर और दाल के दाम ने जनता के पसीने छुड़ा रखे हैं, लेकिन जनता के गले से खिलाफत की एक आवाज नहीं फूट रही है. शायद कांग्रेस को इस बात का पूरा इत्मीनान है कि जनता में आवाज का दिवालियापन है, तभी तो बड़े ही विश्वास के साथ दिल्ली की शीला सरकार ने कामनवेल्थ गेम्स में खर्च हो रहे पंद्रह हजार करोड़ रूपये की वसूली के लिए जनता पर करों का पहाड़ लाद दिया.
ऐसे में सवाल ये नही है कि मंहगाई क्यों बढ़ रही है या फिर विपक्षी दल इसका विरोध क्यों नहीं कर पा रहे हैं? सवाल ये है कि जेएनयू से लेकर बीएचयू तक के परिसर क्यों शांत है? दिल्ली विश्विद्यालय में तो सरकारी नीतियों के विरोध की परम्परा रही नहीं है. लेकिन अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के जानकारों के सेमिनार सुनने को क्यों नहीं मिल रहे हैं? अखबारों खासतौर पर टीवी न्यूज चैनलों पर मंहगाई पर समीक्षकों की बहसबाजी पोलिंग से लेकर काउंटिंग तक जैसी तीखी क्यों नहीं दिखती है?
दरअसल देश में विचार का आभाव हो गया है, राजनीतिक दलों का नेतृत्व विचारहीन हो गया है, तभी तो मंहगाई के विकराल मुद्दे के बजाय उसकी सोच कभी माय नेम इज खान पर जा टिकती है तो कभी शशि थरूर के ट्विटिंग पर, कभी वो महिला आरक्षण के सब्जबाग में श्रेय लेने की होड़ में दौड़ पड़ता है तो कभी माया के नोटों की माला के पीछे, हाल फिलवक्त देश के राजनीतिज्ञ एक कलाकर के सरकारी कार्यक्रम में शामिल होने पर विचारमंथन में लगे हैं क्योंकि उनके पास मंहगाई से लड़ने के लिए विचार करने का वक्त नहीं है. उधर वैचारिक समझ रखने का दावा करने वाले विशेषज्ञ अपने विचार को कांग्रेसी इत्मीनान के आगे बौना पा रहे हैं, उन्हें ये समझ में ही नहीं आ रहा है कि कांग्रेस के विरोध में बोले कैसे क्योंकि जनता तो कांग्रेस के महान परम्परा वाले नेतृत्व के आभामंडल में अपनी आवाज खो चुकी है.
तो क्यों ना देश में विचारशून्य अनुशासन का माहौल बना दें , क्योंकि मौजूदा मंचों पर मौजूद विचार से तो ना जनता का भला हो रहा है ना देश का. जैसा कि इंदिरा गांधी ने 1975 -77 के दौरान आपातकाल लागू करके किया था, ना कोई चूं चपड़ थी ना कोई नारेबाजी थी. बोनस की मांग तो दूर हड़ताल का विचार भी नहीं फटका, जनता को ट्रेने राइट टाइम मिलती थी, अन्न भंडार और आर्थिक उत्पादन तो बढ़ा ही विदेशी मुद्रा का खजाना भी भर गया. एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी पूरे देश में. कहीं से कोई आवाज नहीं उठी और खुद जब इंदिरा गांधी को लगा कि चुनाव होने चाहिए चुनाव हुए. इंदिरा गांधी ने अपनी मर्जी से लोकतंत्र बहाल किया उसका परिणाम अप्रत्याशित था लेकिन यह भी सच है कि जिस विचार ने दिल्ली में सरकार बनाई थी वो भी महज ढ़ाई साल में ही ढ़ह गई. इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी के क्लिन छवि के खिलाफ मांडा के फकीर राजा के विचार भी ज्यादा देर तक नहीं टिके और गांधी विहीन कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का हिन्दूवादी विचार भी दरक चुका है.
सवाल ये भी है कि जनता में आवाज के दिवालिएपन का मतलब क्या है? दरअसल नेहरूयुग के जाने साथ ही कांग्रेस का कोई विचार नहीं रहा है और उसके बाद जो भी दल सत्ता के करीब दिखे उनके विचार का आधार सिर्फ कांग्रेस है. ऐसे में राजनीतिक पार्टियों में विचार का आभाव स्पष्ट है, तो यकीनन जनता को अब ऐसे नेताओं या फिर राजनीतिक संस्थाओं के आने का इंतजार है जो उसकी खोई हुई आवाज का प्रतिनिधित्व कर सके. या फिर कांग्रेस के इमरजेंसी विचार का पूरे अनुशासन से पालना करें. बेहतर हो कांग्रेस इमरजेंसी जैसा अनुशासन पर्व का सिस्टम तैयार कर ले ताकि देश का विकास हो, कम से कम आपातकाल का एक विचार तो रहेगा. क्योंकि विचार के बगैर देश समाज की कल्पना बेमानी है.

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

तो मुस्कुराओ

मुस्कुराओ
क्योंकि खिलखिलाना है
खिलखिलाओ
क्योंकि हंसना है
हंसो
क्योंकि जीना है
जीओ
क्योंकि अस्तित्व है
अस्तित्व है
क्योंकि जीवन है
जीवन है
क्योंकि तुम हो
तो मुस्कुराओ