शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

आपातकाल का विचार कैसा रहेगा सर?

वैसे तो मंहगाई को लेकर बौद्धिक चर्चा और विपक्षी खेमे की राजनीतिक पैंतरेबाजी मनमोहन सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत से ही जारी है, लेकिन जनता है कि बोलने को तैयार ही नहीं है. चीनी के चक्कर और दाल के दाम ने जनता के पसीने छुड़ा रखे हैं, लेकिन जनता के गले से खिलाफत की एक आवाज नहीं फूट रही है. शायद कांग्रेस को इस बात का पूरा इत्मीनान है कि जनता में आवाज का दिवालियापन है, तभी तो बड़े ही विश्वास के साथ दिल्ली की शीला सरकार ने कामनवेल्थ गेम्स में खर्च हो रहे पंद्रह हजार करोड़ रूपये की वसूली के लिए जनता पर करों का पहाड़ लाद दिया.
ऐसे में सवाल ये नही है कि मंहगाई क्यों बढ़ रही है या फिर विपक्षी दल इसका विरोध क्यों नहीं कर पा रहे हैं? सवाल ये है कि जेएनयू से लेकर बीएचयू तक के परिसर क्यों शांत है? दिल्ली विश्विद्यालय में तो सरकारी नीतियों के विरोध की परम्परा रही नहीं है. लेकिन अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के जानकारों के सेमिनार सुनने को क्यों नहीं मिल रहे हैं? अखबारों खासतौर पर टीवी न्यूज चैनलों पर मंहगाई पर समीक्षकों की बहसबाजी पोलिंग से लेकर काउंटिंग तक जैसी तीखी क्यों नहीं दिखती है?
दरअसल देश में विचार का आभाव हो गया है, राजनीतिक दलों का नेतृत्व विचारहीन हो गया है, तभी तो मंहगाई के विकराल मुद्दे के बजाय उसकी सोच कभी माय नेम इज खान पर जा टिकती है तो कभी शशि थरूर के ट्विटिंग पर, कभी वो महिला आरक्षण के सब्जबाग में श्रेय लेने की होड़ में दौड़ पड़ता है तो कभी माया के नोटों की माला के पीछे, हाल फिलवक्त देश के राजनीतिज्ञ एक कलाकर के सरकारी कार्यक्रम में शामिल होने पर विचारमंथन में लगे हैं क्योंकि उनके पास मंहगाई से लड़ने के लिए विचार करने का वक्त नहीं है. उधर वैचारिक समझ रखने का दावा करने वाले विशेषज्ञ अपने विचार को कांग्रेसी इत्मीनान के आगे बौना पा रहे हैं, उन्हें ये समझ में ही नहीं आ रहा है कि कांग्रेस के विरोध में बोले कैसे क्योंकि जनता तो कांग्रेस के महान परम्परा वाले नेतृत्व के आभामंडल में अपनी आवाज खो चुकी है.
तो क्यों ना देश में विचारशून्य अनुशासन का माहौल बना दें , क्योंकि मौजूदा मंचों पर मौजूद विचार से तो ना जनता का भला हो रहा है ना देश का. जैसा कि इंदिरा गांधी ने 1975 -77 के दौरान आपातकाल लागू करके किया था, ना कोई चूं चपड़ थी ना कोई नारेबाजी थी. बोनस की मांग तो दूर हड़ताल का विचार भी नहीं फटका, जनता को ट्रेने राइट टाइम मिलती थी, अन्न भंडार और आर्थिक उत्पादन तो बढ़ा ही विदेशी मुद्रा का खजाना भी भर गया. एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी पूरे देश में. कहीं से कोई आवाज नहीं उठी और खुद जब इंदिरा गांधी को लगा कि चुनाव होने चाहिए चुनाव हुए. इंदिरा गांधी ने अपनी मर्जी से लोकतंत्र बहाल किया उसका परिणाम अप्रत्याशित था लेकिन यह भी सच है कि जिस विचार ने दिल्ली में सरकार बनाई थी वो भी महज ढ़ाई साल में ही ढ़ह गई. इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी के क्लिन छवि के खिलाफ मांडा के फकीर राजा के विचार भी ज्यादा देर तक नहीं टिके और गांधी विहीन कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का हिन्दूवादी विचार भी दरक चुका है.
सवाल ये भी है कि जनता में आवाज के दिवालिएपन का मतलब क्या है? दरअसल नेहरूयुग के जाने साथ ही कांग्रेस का कोई विचार नहीं रहा है और उसके बाद जो भी दल सत्ता के करीब दिखे उनके विचार का आधार सिर्फ कांग्रेस है. ऐसे में राजनीतिक पार्टियों में विचार का आभाव स्पष्ट है, तो यकीनन जनता को अब ऐसे नेताओं या फिर राजनीतिक संस्थाओं के आने का इंतजार है जो उसकी खोई हुई आवाज का प्रतिनिधित्व कर सके. या फिर कांग्रेस के इमरजेंसी विचार का पूरे अनुशासन से पालना करें. बेहतर हो कांग्रेस इमरजेंसी जैसा अनुशासन पर्व का सिस्टम तैयार कर ले ताकि देश का विकास हो, कम से कम आपातकाल का एक विचार तो रहेगा. क्योंकि विचार के बगैर देश समाज की कल्पना बेमानी है.

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