गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

चलिए एक और प्रेरणा अमेरिका से लें...

इंडियनसीएसआर से साभार
राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने चुने जाने से पहले कहा था कि वह बढ़ती हुई घरेलू मुश्किलों और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के समाधान के लिए अमेरिकी नागरिकों की स्वैच्छिक सेवा की भावना का सहारा लेंगे। ओबामा ने अपने भाषणों में और वेबसाइट पर एक ऐसी योजना की बात की है जिसमें ऐसे कार्यक्रमों को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाएगा जिनसे अमेरिका और विदेशों में अमेरिकी नागरिकों को स्थानीय स्वैच्छिक समुदाय से जुड़ी संस्थाओं के साथ काम करने का बढ़ावा मिल सके।
वह घरेलू कार्यक्रम अमेरिकॉ में व्यक्तियों की संख्या को 2,50,000 तक बढ़ाने की बात करते हैं। इसके तहत स्वयंसेवक कम सुविधा वाले स्कूलों में शिक्षकों तथा विद्यार्थियों की मदद करते हैं। साथ ही वे जन स्वास्थ्य सेवाओं को भी और अधिक लोगों तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। ओबामा विभिन्न देशों में विविध प्रकार की विकास योजनाओं में कार्य करने के लिए पीस कॉर में स्वयंसेवकों की संख्या भी 16,000 तक बढ़ाना चाहते हैं। साथ ही मिडिल स्कूलों तथा सेकेंडरी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए सामुदायिक सेवा के लक्ष्य निर्धारित करना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि जन सेवा में विद्यार्थी जो समय लगाएंगे, उन्हें उसका क्रेडिट मिले।
ओबामा ने अमेरिका की व्याख्यान पहल यानी वॉयस इनिशिएटिव की भी बात की जिसके तहत स्थानीय भाषाओं में धाराप्रवाह भाषण देने वाले शिक्षकों, इंजीनियरों तथा डॉक्टरों को जन कूटनीति का समर्थन करने के लिए विदेशों में भेजा जाएगा।
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अपने एक भाषण में ओबामा ने कहा, ''हर उम्र, स्थान और योग्यता के लोगों से इस तरह की सेवा करने को कहा जाएगा। चुनौतियों का सामना करते वक्त अमेरिका के लोग समस्या नहीं बल्कि समाधान बन जाते हैं।'' अमेरिकी श्रम सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, 26 प्रतिशत अमेरिकी नागरिक स्वेच्छा से सुविधाओं से वंचित लोगों की सेवा करते हैं।
राष्ट्रपति चुने जाने से पहले ही ओबामा ने नागरिक सरोकारों से और अधिक जोड़ने के लिए अमेरिकी स्वैच्छिक सेवा प्रणाली को पुनर्गठित करने का सुझाव दिया ताकि अमेरिकी युवा वर्ग और अवकाश प्राप्त लोग अपनी योग्यताओं के अनुसार योगदान दे सकें। उन्होंने सुविधाओं से वंचित युवाओं के लिए ऐसे रोजगार कार्यक्रम की भी बात की जिससे इन युवाओं को सेवा के सुअवसर तथा काम करने का व्यावहारिक लाभ मिल सके। वह ऐसे कार्यक्रमों का भी विस्तार और सुधार करना चाहते हैं जिनमें 55 वर्ष से अधिक उम्र के लोग अपना बेहतर योगदान कर सकें। अपने इन कार्यक्रमों का विकास करने में ओबामा को एक नया अनुभव होगा। स्वैच्छिक कार्य राष्ट्र के इतिहास की लगभग शुरुआत से ही अमेरिकी स्वभाव का अभिन्न अंग रहा है।
अमेरिका के अनेक स्कूलों में 'समाज को लौटाएं' की संकल्पना को पाठयक्रम का हिस्सा बना दिया गया है। स्वैच्छिक कार्य को केवल विद्यार्थियों में ही नहीं बल्कि शिक्षकों, प्रोफेसरों और अन्य कर्मचारियों में भी बढ़ावा दिया जाता है। कोई वरिष्ठ विद्यार्थी किसी युवा विद्यार्थी को पढ़ा रहा हो अथवा विद्यार्थियों की टोली सप्ताहांत में किसी स्थानीय नदी की सफाई की योजना बनाने के लिए बैठक कर रही हो तो यह कोई असामान्य बात नहीं। ओबामा चाहते हैं कि मिडिल स्कूल और सेकेंडरी स्कूल साल में कम से कम 50 घंटे समाज सेवा का कार्य करें। इसके साथ ही वह यह भी चाहते हैं कि विद्यार्थी कार्य अध्ययन कार्यक्रमों में भाग लें और यूनिवर्सिटी के लिए जो कार्य वे करेंगे, उसके लिए पढ़ाई के समय में छूट दी जाए। इस प्रकार के कार्यक्रम में वे डाइनिंग हॉल और लाइब्रेरी से संबंधित जनसेवा परियोजनाओं का काम कर सकते हैं।
कॉर्पोरेशन फॉर नेशनल एंड कम्युनिटी सर्विस के अनुसार, विद्यार्थियों पर किए गए अध्ययन से यह पता लगा है कि जो विद्यार्थी स्वेच्छा से समाज की सेवा के कार्यों से जुड़े रहते है, वे आगे चल कर जीवन में भी नागरिकर कर्तव्यों का बेहतर रूप से पालन करते हैं। साथ ही उनका सामाजिक व्यवहार, प्रवृत्ति तथा आदतें सकारात्मक होती हैं। गैर मुनाफे की संस्थाएं मालिकों या निवेशकों के मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि आम लोगों की सेवा अथवा आपसी सेवा के लिए कार्य करती हैं। अमेरिका में गैर मुनाफे की सेवाएं अनेक प्रकार की हैं जिनके तहत वैश्विक स्तर पर गरीबी उन्मूलन, पर्यावरण का बचाव, वन जीवों का संरक्षण तथा एचआई-वीएड्स के रोगियों की सहायता आदि मुद्दे आते हैं। नेशनल सेंटर फॉर चैरिटेबिल सर्विसेज के अनुसार, वर्ष 2006 में अमेरिका में 14 लाख से भी अधिक गैर मुनाफे की संस्थाएं थी। ओबामा इससे संबंधित ऑनलाइन नेटवर्क भी बनवाना चाहते हैं ताकि अमेरिकी नागरिक इस प्रकार की सेवा के सुअवसर खोज सकें।
अमेरिका में आस्था-आधारित संस्थाओं के जरिए या उन संस्थाओं के लिए भी स्वैच्छिक काम करना आम बात है। इनमें विदेशों के दूरदराज गांवों में बाइबल से संबंधित सुसमाचारी मिशनों के लिए काम करना और बेघर लोगों को भोजन मुहैया कराना जैसी गतिविधियां शामिल हैं। हालांकि कुछ आस्था-आधारित संस्थाएं धार्मिक शिक्षा भी देती हैं लेकिन ऐसी अन्य संस्थाए जरूरतमंद लोगों की मदद करने तथा राहत पहुंचाने पर विशेष ध्यान देती हैं।
विश्व भर में कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। इसके तहत कंपनियां अन्य लोगों की सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरण संबंधी अपेक्षाओं के अनुसार गतिविधियां आयोजित करती है। इनमें कंपनी में निवेश करने वाले लोग भी होते हैं और आम जनता भी, जिनके मन में कंपनी की एक विशेष छवि होती है। कॉरपोरेशन फॉर नेशनल एंड कम्युनिटी सेंटर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेविड आइजनर का कहना है, ''स्वैच्छिक कार्य करने से दिल मजबूत होता है। छह करोड़ 10 लाख से भी अधिक अमेरिकी लोग जरूरतमंद लोगों की जीवन शैली में सुधार के लिए अपने आप को नि:स्वार्थ रूप से समर्पित कर देते हैं।
(लिया डो America.gov की लेखिका हैं।)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

मुंशी प्रेमचंद का हामिद और कसाब

३१ मार्च के तहलका हिन्दी संस्करण में प्रकाशित ...
बीसवीं सदी के शुरूआती सालों का दौर था। तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान अलग अलग मुल्क नहीं थे। अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम हमारे मुल्क की सामाजिक आर्थिक हालात बनारस से लेकर लाहौर तक एक ही थे। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद बमुश्किल ही हालात में कोई तब्दीली आई हो सिवाय इसके कि हम आज़ाद थे, लेकिन दो मुल्कों में बंटे हुए । जाते वक्‍त के साथ हालात में इतनी और तब्दीली आयी कि सरदार अली ज़ाफरी ने लिखा कि तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश, हम आए सुबह-ए-बनारस की रौशनी लेकर, फिर ये पूछें कौन दुश्मन है?
करीब नब्बे साल पहले एक कहानी बनारस में लिखी गई थी, जो आज नब्बे साल बाद लाहौर के करीब फरीदकोट से ना सिर्फ जुड़ती है बल्कि तमाम सवाल भी खड़ा करती है।
मुंशी प्रेमचंद की इस कहानी का नाम है ईदगाह,जिसमें एक गरीब सूरत, दुबला-पतला बच्चा है हामिद,जो अपनी दादी अमीना के साथ रहता है। हामिद का बाप हैजे की भेंट चढ़ जाता है और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था?
हामिद को बूढ़ी दादी ने भरोसा दिला रखा है उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। इसपर प्रेमचंद लिखते हैं आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह खुश है।रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद जब ईद आती है तो वो और खुश हो जाता है।
ऐसी ही परिस्थितियां अजमल कसाब (सत्ताइस नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले में शामिल) के सामने थी जब उसने घर छोड़ने का इरादा किया, बकौल अजमल के पिता आमिर कसाब अजमल को ईद के दिन नये कपड़े नहीं मिले, तो बस अजमल घर से चल गया। मुंशी प्रेमचंद की कहानी में भी आर्थिक तंगहाली और सामाजिक जरूरत की वजह से हामिद की दादी अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रोती है और बड़ी मुश्किल से मासूम हामिद को तीन पैसे दे पाती है, ईदगाह जाने और वहां कुछ खरीदने खर्च करने के लिए। पर हामिद है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाता।
दादी ने हामिद को बताया है कि उसके अब्बा कमाने गए हैं और जल्दी ही ढ़ेर सारे रूपये लेकर आएंगे। बनारस के जिस गांव लमही के मुंशी प्रेमचंद रहने वाले थे उससे आजमगढ़ कोई बीस पच्चीस किमी ही दूर होगा लेकिन बीते दशक में यदि रोजगार के लिए जिस ज़िले से पश्चिम एशिया सबसे ज्यादा लोग गए तो वो आज़मगढ़ है। ये इस बात की तस्दीक करता है कि तब और अब में फासला महज वक्त का है, और बाकी सब जस का तस है।
अजमल कसाब भी किसी से नए कपड़े मांगने नहीं गया. उसने भी किसी के मिजाज़ नहीं सहे, लेकिन उसने वो रस्ता चुना जिस को नब्बे साल के दौरान हमारे हुक्मरानों ने तैयार किया है। मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह में हामिद ने अपनी दादी के हाथ जलने से बचाने के लिए चिमटा खरीद लिया। शायद अजमल के कुकृत्य के पीछे भी ऐसा ही कुछ था.खबरों के मुताबिक काम खत्म होने के बाद कसाब के परिवार को डेढ़ लाख रूपये मिलने तय हुए थे। लेकिन ये कहानी और चिमटे की बात होती तो कोई बात थी। ये रूपये तो अपने घर की दशा सुधारने के लिए एक महाघृणित कार्य के ज़रिये कसाब के परिवार को मिलने थे। सामाजिक और आर्थिक परिवेश में तो कोई बदलाव नहीं आया वरन राजनीतिक परिवेश में आतंकवाद का मोहरा जरूर नया है जिसके एक चाल से ईद का सदभाव, इंसान का विवेक, मोहब्बत सबकुछ तिनके की तरह उड़ता रहा है।

मुंशी प्रेमचंद कहानी के अंत में लिखते हैं-अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!
कसाब भी शायद कुछ रहस्यों को नहीं समझ पाता, उसकी नजर पर लगे बेरोजगारी और सामाजिक असमानता का चश्मा उसे आंतकवादी बना देती हैं। कमोबेस ये हालात हर जगह है चाहे वो आजमगढ़ का हो बनारस का मुंबई का या लाहौर का हो। इक्सीवीं सदी के इन शुरूआती वर्षो में बनारस से लेकर लाहौर तक हालात में कोई खास फर्क नहीं है।कभी ये दोनों एक थे फिर दो मुल्क हुए और अब दुश्मन हैं, अब हैजे ने आंतकवाद का रूप ले लिया है तो पीलिया ने नफरत का और गरीबी ने तो वही रूप आज भी अपना रखा है। ऐसे सवाल खड़ा होता है कि मुंशी प्रेमचंद का हामिद अगर आज होता तो क्या करता? कसाब और सलेम को सही नही मानता लेकिन उनके जैसा बनने के लिए उकसाने वाले हालात भी तो खलनायक हैं।
एक बात और जेहन में कौंधती है कि मुंशी प्रेमचंद आज के दौर में ईदगाह को फिर से लिख रहे होते तो वो इस कहानी को क्या अंत देते। ख्याल कीजिए कि ईदगाह में हामिद की मुलाकात लश्कर के किसी कमांडर से हो जाती तो?