शनिवार, 4 जुलाई 2009

ये देश कैसे बनता है?

१५ जून तहलका के हिन्दी संस्करण में प्रकाशित

ये देश कैसे बनता है?
बुद्धिजीवियों के चिंतन से
या नेताओं के गठबंधन से,
बैलों को हांकते हांफते किसानों के पसीने से
या घर से दूर मोर्चे पर डटे जवानों की संगीनों से,
शिक्षक के आँखों में बसे सुनहरे सपनों से
या डॉक्टर इंजीनियरों की बेहतर कल की उम्मीदों से
ये देश कैसे बनता है?

बच्चे की उमंग से
या किशोरों की हुड़दंग से,
नौजवानों के इरादों से
या बुजुर्गों के अनुभव और विचारों से,
खेतों की मेड़ों से या जंगल के पेड़ों से
गाय,बैल, भैंस बकरी या चरवाहे की भड़ों से
समंदर के किनारों से या नदियों के संगम से
कुओं से तालाबों से पर्वत या कि घाटी दुर्गम से,
आखिर ये देश कैसे बनता है?
मंदिर के घंटों से या मस्जिद के आज़ानों से
गुरूद्वारे की गुरूबानी से या गिरजा के घड़ियालों से

कुछ भी छुटा तो टूटेगा।

बच्चे, बूढ़े, हिन्दू मुस्लिम सबकी आंखों में पलता है
कोई हुआ धीमा तो रूक रूक के चलता है
सब में ही थोड़ा-थोड़ा रमता है
ये देश ऐसे बनता है...