सोमवार, 8 जून 2009

लेकिन वीपी फिर जीतेगें

चौथी दुनिया की वापसी के पहले अंक में प्रकाशित
जरा गौर से देखिए, दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र में क्या हो रहा है?
चार नवम्बर २००८ जब दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र अपने दो सौ साल के अतीत में बदलाव ला रहा था तब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अतीत को बदलने की गुस्ताखी करने वाला अपनी मौत का इंतजार कर रहा था।
बराक ओबामा अमेरिका के ४४वें राष्ट्रपति चुनें जा चुकें थे। नस्लवाद के खिलाफ शुरू किए गए जंग का ये सबसे बड़ा जश्न, जिसे उसके प्रणेता मार्टिन लूथर किंग की आत्मा शायद देख रही होगी। १९६४ में डेमोक्रटिक पार्टी के राष्ट्रपति लिण्डन जॉनसन ने उस विधेयक को पास कर दिया जिसके तहत अश्वतों को अमेरिकी चुनाव में मतदान करने का अधिकार मिला और चौवालीस सालों के बाद अमेरिका से गोरो और कालों के बीच का कम से कम वो भेदभाव मिट गया जिसमें अमरिकी संविधान उन्हें आंशिक इंसान की व्याख्या दी थी। अमेरिकी लोगों ने अपने अतीत की उन शर्मनाक करतूत जिसमें अश्वेतों को गोरों के बनिस्बत ३/५ ही इंसान बताया को भूलाकर नए बदलाव को स्वीकार लिया था।
लेकिन दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक ऐसा करने का माद्दा रखते हैं? १९७९ में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई ने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की गरज से मंडल कमीशन बनाया। जिसे दस साल तक किसी सरकार ने हाथ नहीं लगाया क्योंकि अगड़ी जातियों के ताकत के सामने ऐसा करना ना सिर्फ सत्ता से बेदखल होना था बल्कि अरसे तक खलनायक के चरित्र में रहना भी था। लेकिन एक शख्स था जिसमें अपने अतीत को बदलने का माद्दा था, जिसे मालूम था कि हिन्दूस्तान के अतीत और वर्तमान पर काबिज अगड़ी जातियां उन्हें ना सिर्फ उखाड़ फेंकेगी बल्कि अरसे तक उन्हें राजनीति की मुख्य धारा से बाहर कर देंगी। यही हुआ पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिलाकर हिन्दूस्तान के अतीत को बदलने की गुस्ताखी की।
अमरिका में अश्वेतों को वोट देने के अधिकार वाले विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रपति लिण्डन ने कहा था कि इसका खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना पड़ेगा। १९६४ से लेकर २००९ तक सिर्फ दो डेमोक्रेट राष्ट्पति चुने गए।
मंडल कमीशन के विरोधी में व्यापक आंदेलन हुए, बसे फूंक दी गई, स्कूल कॉलेजों में अनिश्चित बंदी हुई, आत्मदाह हुए, वीपी को गुस्ताखी की सजा मिली उनकी ग्यारह महीनों की सरकार गिर गई। और धीरे धीरे जनतामोर्चा का अस्तित्व समाप्त हो गया। ये और बात है कि इस गुस्ताखी के पैदाइश राजनेताओं ने राजनीति में अपनी दखल बना रखी है लेकिन वीपी के सरोकार से उनका कोई फरामोश नही है क्योंकि नेता सरकार चलाने वाला नही तकदीर को संवारने वाला होता है और पिछडे वर्ग के नेताओं में वो माद्दा नही है जो मायावती में अंबेडकर और कांशीराम को लेकर है। यहां ये उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तान का पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के नाम का प्रस्ताव उप राष्ट्रपति पद के लिए वीपी ने रखा था।
ये बिलकुल बहस का विषय हो सकता है कि ओबीसी आरक्षण किन परिस्थितियों में लागू किया गया, लेकिन इसे गलत कहना अपने अतीत से मुंह चुराना होगा। अतीत जिसमें ऊंच नीच भेदभाव, छूत अछूत की ना जाने कितनी दोगली व्यवाहर हैं। १९८२ में डकैतों के खिलाफ सरकार के विफलता के बाद वीपी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, ये सिर्फ वीपी हो सकते हैं। नैतिकता के इस पैमाने पर हमारा व्यवहार दोगला नहीं तो और क्या है? आने वाला इतिहास वीपी को उसको सम्मान देगा पूरा सम्मान देगा और तब हमारे सामने अतीत के दोगलेपन का फिर एक उदाहरण होगा, और फिर हम कहेंगे राजा नहीं फकीर था हिन्दुस्तान की तकदीर था। मुम्बई में होटल ताज आतंकवादियों के कब्जे में था, सहमा हुआ हिन्दुस्तान सिर्फ लाइव रिपोर्टिंग देखने में व्स्त था । लिहाजा २७ नवम्बर को जब वीपी का देहांत हुआ तो ये खबर दब कर रह गई... शाम को मेरी मुलाकात वीपी के ग्रीन ब्रिगेड के एक कार्यकर्ता से हो गई उसने पूरे वाकये पर कहा कि इलाहाबाद में किसी महिला ने वीपी को शाप दिया था कि जब वो मरेगें तो कुत्ता भी नही रोएगा। लेकिन वो ये नही बता पाए कि उन आशीर्वादों का क्या हुआ जो करोड़ो मांओं ने आरक्षण लागू करने के लिए दिए थे। हमे आनेवाले वक्त का इंतजार है।


दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र अमेरिका अपने अतीत की दोगलेपन को बदलने की गुस्ताखी कर चुका था, आज पैंतालीस साल बाद उसकी गुस्ताखी का नतीजा सामने है, अमेरिकी समाज ने १७८७ के उस अश्वेत इंसान को अपना राष्ट्रपति चुन चुका है। और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अतीत को बदलने की गुस्ताखी करने वाले वीपी ने इस ऐतिहासिक घटना को देखा और २७ नवम्बर को दुनिया से चला गया। लेकिन वीपी फिर जीतेगा।