शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

काहे का बुरा !!!



बड़ी उम्मीद से मैंने मुलाकात की
बड़ी बेशर्मी से उसने बात की
सारी बातों और बातों को इशारे में एक शर्त है,
मुझे,
उसकी सारी बातें अच्छी लगनी चाहिए
और मेरी कोई भी बात
उसे बुरी लग सकती है...
उसने फिर इशारे में कहा
बड़ी उम्मीद है उसको मुझसे         
उसके हर इशारे को मैं वैसा ही समझूं
अच्छा, वैसा ही जैसा उसने कहा.

शनिवार, 23 मार्च 2013

बाजार के निशाने पर नायक


कहते हैं प्रेम में गिरने का एक ढंग होता है, लेकिन हमारे देश की इक्कीसवीं सदी की नौजवान पीढ़ी भगत सिंह के प्रेम में ऐसी गिरी है कि उसे महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द बोलने तक से गुरेज नहीं होता है. इस पीढ़ी को भगत सिंह की जन्मतिथि और पुण्यतिथि भले ही ना पता हो लेकिन उसे इतना जरूर पता होता है कि गांधी जी की वजह से ही देश का बंटवारा हुआ था, इस उर्जावान पीढी को शायद ही पता हो कि भगत सिंह ने बम असेम्बली में फेंकी थी या अदालत में लेकिन उसे इतना पता होता है कि गांधी जी ने पचपन लाख रूपये पाकिस्तान को दिलवाए जिससे पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था. इन्हें ये भी पता ना होगा कि बम फेंकने वाले भगत सिंह के साथी का नाम बीके दत्त था. और ये तो कतई नहीं मालूम होगा भगत सिंह के इंकलाब का मतलब क्या है?
बाजारवाद की आंधी में देश के नौजवानों के आंखों पर जो चश्मा चढ़ा है उस चश्मे के लिए भगत सिंह का आक्रमक व्यक्तित्व बिल्कूल मुफीद है लेकिन उस चश्मे से भगत सिंह की साम्यवादी सोच और क्रांति के प्रति उनका जज्बा नहीं दिखायी देता. किसी मसालामार फिल्म को देखने के बाद ये नौजवान भगत सिंह को फांसी के लिए गांधी जी को ही जिम्मेदार साबित कर देते हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता होता है कि क्रांति को समर्पित भगत सिंह का फांसी पर झूलना एक विचार था, शायद ही उन्होंने कहीं सुना, पढा या देखा हो कि भगत सिंह की लड़ाई उसी तंत्र और सोच से थी जिसके बाजार में फंसकर वो गांधी जी को उतनी ही गालीयां दे बैठते हैं जितनी साम्राज्यवादियों की गोलीयां भगत सिंह और उनके साथियों के खिलाफ चली होंगी.
असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बीके दत्त वहीं बेंच पर बैठ गए और खुद की गिरफ्तारी दी, क्योंकि उन्हें दुनिया के सामने अपनी बात रखनी थी. बम फेंकने के मामले की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने यह स्पष्ट करते हुए कहा था कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे. हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है. विडंबना देखिए कि भगत सिंह के इस क्रांतिकारी तेवर को पूंजीवादी बाजार ने अपने फायदा में इस्तेमाल कर लिया और नौजवानों के बाजारवादी चश्मों में गांधी जी खलनायक साबित कर दिए गए.
गांधी जी ने जब देश की आजादी की लड़ाई शुरू करने से पहले अंग्रेजों के चरित्र को समझा उनकी साम्राज्यवादी नीतियों से लड़ने की गुलाम भारतीयों के सामने परम्परागत युद्ध लड़ने की बजाय नए तरीके से लड़ने की बात कही, गांधी जी कहते थे कि स्वराज का मतलब अंग्रेजों का भारत से भगाना नहीं बल्कि इस देश की जनता को एक नई गरिमा देना है, तब भी सूट टाई पहने बुद्धिजीवी बैरिस्टर और भद्र पुरूष मीटिंग करते थे और देश की आजादी की बात अंग्रेजों की व्यवस्था नैशनल असेम्बली के दायरे में करते थे और आज भी दिल्ली उन्हीं विचारों की पोषक है, लेकिन तब गांधी जी ने देश की इस मजबुरी को पहचाना और आजादी की लड़ाई इन भद्रजनों से लेकर गांव के चौपालों तक ले गए, देश राजनीतिक रूप से एक हुआ फिर आजादी की लड़ाई समग्र रूप से साथ लड़ी गई. देश में राजनीति विचार बैठक से गांव की पगडंडियों पर पहुंचा.
साम्राज्वादियों की ताकत आज भी कम नहीं हुई है वो आज भी दुनिया को अपना गुलाम बनाये हैं लेकिन हम भगत सिंह की प्रशस्ति तो करते हैं लेकिन भगत सिंह बनने की बजाय गांधी जी को गाली देकर बाजार के उस षणयंत्र का शिकार हो जाते हैं जो हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दोनों नायकों की धुधली छवि के जरिए हमें भ्रम में रखते हैं.
एक प्रचलित जुमला है मजबुरी का नाम महात्मा गांधी, देश की नौजवान पीढ़ी की करियरिस्टिक मजबुरी भगत सिंह के इंकलाब के एकदम विपरित है और गांधी जी की मजबुरी के सामने टुच्ची है ऐसे में हमारे देश के नौजवानों को सोचना चाहिए कि प्रेम में गिरने के बाद उनकी योजना क्या होगी? वैसे कहा जाने लगा है कि अब हर कोई भगत सिंह पड़ोस के घर में देखना चाहता है.

बुधवार, 13 जून 2012

लोहिया की ज़िंदा क़ौम कब जागेगी

लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पाठ यह है कि जनता कभी ग़लती नहीं करती, गलती तो सरकार करती है, नेता करते हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर वित्त मंत्रालय के सचिव करते हैं। उनसे जो छूटता है वे गलतियां नीचे के बाबू कर बैठते हैं. संसद में जनता की नुमांइदगी करनेवाले सांसद भी गलती के पुतले हैं. और अब तो लोकपाल के लिए लड़ने वाले अन्ना हजारेभी गलती कर रहे हैं। इसीलिए उनकी टीम टूट रही है. कालेधन की लड़ाई लड़ रहे रामदेवने भी गलती की, उन्हें उस रात रामलीला मैदान से भागना नहीं चाहिए था. सभी गलत हैं,बस एक जनता गलत नहीं है. माओवादी भी गलत हैं, वे हत्याएं करते हैं.

कुछ दिनों पहले ही देशकी प्रगतिशील सरकार ने तीन साल पूरे कर लिए हैं, इससे पहले प्रगतिशील सरकार नम्बरएक ने पांच साल पूरे किए थे. फिर दो हजार नौ में चुनाव हुए और देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी अपनी गलतियों के पिटारे के साथ जनता के सामने पहुंचीं और विजयी भव: का आशीर्वाद मांगा. जनता ने भी अपना धर्म निभाया और दिल्ली के नारों को अपने अपने प्रदेश में सुनने के लिए वोट डाला. जनता जानती है कि कुछ एक प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कांग्रेस ने यूपीए दो का गठबंधन बनाकर दिल्ली में सरकार बनाई है सो उसकी कुछ मजबूरियां भी हैं क्योंकि जिन मंत्रियों से गलती हो रहीहै वे कांग्रेस के नहीं हैं. मसलन शरद पवार जो कृषि मंत्री हैं, दूरसंचार मंत्रीरहे ए राजा और रेल मंत्री रहे दिनेश त्रिवेदी, ये सभी गलत हैं और गलत है कांग्रेस पार्टी जिसने मजबूरी में इन्हेंसरकार में शामिल किया क्योंकि इनको वोट देकर जिताने वाली जनता तो कभी गलती करती हीनहीं है. ऐसे अजीबोगरीब मंत्रिमंडल से कहीं जनता में गलत संदेश ना चला जाए औरयूपीए तीन की उम्मीद को ग्रहण ना लग जाए, इसके लिए बदलाव की नीति बनाई जाती है. बदलाव को रोकने का सबसे कारगर तरीका बदलाव का भ्रम पैदा करना होता है, यह दूसरी महान नीति है जिससे लोकतंत्र ज़िंदा रहताहै.

हमारे देश मेंअंग्रेजों ने इस मंत्र का खूब इस्तेमाल किया. पंद्रह अगस्त सन् सैंतालीस को यह भ्रम राष्‍ट्रवा दी मंत्र के रूप में स्वीकार किया गया और आज भी बदलाव के इसी मंत्र केदम पर हिन्दुस्तान की सरकारें जनता के सामने गुलाबी तस्वीरें पेश करती हैं और कहती हैं कि जनता जनार्दन कभी गलती नहीं करती है. वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी बदलाव केभ्रम का खूब फायदा उठाया, आर्थिक सुधारों के पुरोधा के तौर पर जाने जाने वाले मनमोहन सिंह ने जब 1992 में आर्थिक सुधारों की नींव रखी थी तो कहा था कि अब सोचबदलने का वक्त आ गया है. उन्होंने ऐसा सोच बदला कि अप्रैल 2004 से अप्रैल 2012 केबीच सभी जिंसों की कीमतों में 63 फ़ीसदी की वृद्धि हुई और खाद्य वस्तुओं में कीमत वृद्धि98 से बढ़कर 206.4 फ़ीसदी पर पहुंच गई. क्या यह मनमोहन सिंह की गलती नहीं है. बिल्कुल हैउन्होंने क्यों भ्रष्ट मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया. यूपीए एक मेंकांग्रेस ने उनके ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि का भ्रम बनाए रखा और एक अराजनीतिकव्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाकर बदलाव काभ्रम पैदा किया. जब सरकार की ईमानदार छवि पर दाग़ लगा तो मजबूर प्रधानमंत्री कीछवि पेश कर दी गई. जनता से मनमोहन सिंह ने कहा कि गठबंधन धर्म की कुछ मजबूरियांहोती हैं और जनता ने सहर्ष बदलाव के इस भ्रम को स्वीकार कर लिया। तभी तो पेट्रोलके दाम 7.50 रूपए बढ गए और जनता सिर्फ सरकार को कोसती रह गई, क्योंकि तेल के दामअब अनियामित ही हैं और इसका घटना बढ़ना सब तेल कंपनियों के हाथ में है जो वैश्विक बाज़ारकी कीमतों के मुताबिक फ़ैसला लेती हैं. लेकिन आश्चर्य है कि ये दाम चुनाव के बादही बढ़ते हैं या फिर संसद सत्र खत्म होने के तुरंत बाद. बहरहाल बदलाव के भ्रम की नीतिने सरकार को इसके आरोपों से सीधे तौर पर बचा लिया है, आप मानें चाहे ना मानें, ये 2014 के चुनावों में साफ हो जाएगा. ठीक पांचसाल बाद जब लोहिया के लोग ज़िंदा कौम के जागने की उम्मीद लगाए ईवीएम मशीन के खुलनेका इंतजार कर रहे होंगे और जनता जब जाग जाएगी तो क्रांति आ जाएगी- यह मानकर लाल सलाम ठोंकने वाले लोग जब नतीजेदेखेंगे, तो देश के बेहतर भविष्य के लिए एक सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त करेंगे. बीते तारीख को लोहिया के मुलायम तीन साला रिपोर्ट कार्ड लिए यूपीए दो के संग मंच साझा करते हैं तो लाल सलाम करने वाले लोग तय नहीं कर पा रहे हैं किसके साथ खड़े हों। यूपीए एक में सरकार का समर्थन करते थे तो यूपीए पार्ट टू में उसके राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के नाम कां इंतजार करते हैं ताकी वो अपना स्टैंड रख सकें, अजीब है.

कुल मिलाकर ये बात बहुत साफ है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियों की नीति सिर्फ पार्टी चलाने तक है,लोकतंत्र को ज़िंदा रखने का भ्रम पैदा करके वे अपनी अपनी पार्टियों को ज़िंदा रखनेकी कोशिश में लगी रहती हैं. और ज़िदा जनता चुनावों के वक्त ये भूल जाती है किईमानदार छवि और आकर्षक विचारधारा सिर्फ भ्रम पैदा करने के लिए है ताकी वे गलतियां करें. एक बार फिर से सोचिएगा कि पेट्रोलके दाम बढ़ ने के लिए कौन जम्मेदार है?




गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

बर्दाश्त...


Stop trying to fit in... when you were born to stand out!!!
इन पंक्तियों का मतलब है कि जब आपका जन्म ही सबसे अलग खड़े रहने के लिए हुआ है तो ढ़र्रे में फिट रहने की कोशिश क्यों करते हैं...कुछ ही दिन पहले मेरे एक मित्र ने इसे अपने जी मेल अकाउंट के स्टेटस में लिखा था.
ये अजीब है लेकिन सच है, हम हमेशा खुद को एडजस्ट करने में लगे रहते हैं फिर वो नौकरी हो, घर हो, समाज हो या कुछ भी हो हम बस अपने आपको फिट करते हैं ताकी जीवन की गाड़ी चलती रहे.
मेरे एक मित्र ने कुछ दिन पहले मुझसे बोला कि बर्दाश्त करना तुम्हारी नियति है.
इन दोनों चीजों में कोई ताल्लुक नही है, लेकिन हम एडजस्ट करने के लिए ही तो बर्दाश्त करते हैं.
मुझे कुछ भी समझ में नही आ रहा है कि कैसे मैं बग़ैर बर्दाश्त किए एडजस्ट करूं यदि मुझे एडजस्ट करना है.
मुझे ये भी समझ में नही आ रहा है कि मैं क्यों एडजस्ट करू..
ये सवाल आपके लिए भी है

रविवार, 23 जनवरी 2011

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

धूप और साल को नमस्ते


जैसे आंगन से रोज

आकर धूप चला जाती है,

वैसे ही ज़िंदगी से हर साल

एक साल चला जाता है...


जैसे अलसुबह की अंगड़ाई

धूप की गर्मी से उखड़ जाती है

वैसे ही जीवन का सफर

हर साल बढ़ चला जाता है...


जैसे दिन का पहर

धूप के जाने के साथ ढ़ल जाता है

वैसे ज़िंदगी का एक पन्ना

गुजरते साल के साथ साफ हो जाता है...


अगली धूप और अगले साल को

नमस्ते!!!!!