कहते हैं प्रेम में गिरने का एक ढंग होता है, लेकिन हमारे देश
की इक्कीसवीं सदी की नौजवान पीढ़ी भगत सिंह के प्रेम में ऐसी गिरी है कि उसे
महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द बोलने तक से गुरेज नहीं होता है. इस पीढ़ी को
भगत सिंह की जन्मतिथि और पुण्यतिथि भले ही ना पता हो लेकिन उसे इतना जरूर पता होता
है कि गांधी जी की वजह से ही देश का बंटवारा हुआ था, इस उर्जावान पीढी को शायद ही
पता हो कि भगत सिंह ने बम असेम्बली में फेंकी थी या अदालत में लेकिन उसे इतना पता
होता है कि गांधी जी ने पचपन लाख रूपये पाकिस्तान को दिलवाए जिससे पाकिस्तान ने
कश्मीर पर हमला किया था. इन्हें ये भी पता ना होगा कि बम फेंकने वाले भगत सिंह के
साथी का नाम बीके दत्त था. और ये तो कतई नहीं मालूम होगा भगत सिंह के इंकलाब का
मतलब क्या है?
बाजारवाद की आंधी में देश के नौजवानों के आंखों पर जो चश्मा
चढ़ा है उस चश्मे के लिए भगत सिंह का आक्रमक व्यक्तित्व बिल्कूल मुफीद है लेकिन उस
चश्मे से भगत सिंह की साम्यवादी सोच और क्रांति के प्रति उनका जज्बा नहीं दिखायी
देता. किसी मसालामार फिल्म को देखने के बाद ये नौजवान भगत सिंह को फांसी के लिए
गांधी जी को ही जिम्मेदार साबित कर देते हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता होता है कि
क्रांति को समर्पित भगत सिंह का फांसी पर झूलना एक विचार था, शायद ही उन्होंने
कहीं सुना, पढा या देखा हो कि भगत सिंह की लड़ाई उसी तंत्र और सोच से थी जिसके
बाजार में फंसकर वो गांधी जी को उतनी ही गालीयां दे बैठते हैं जितनी साम्राज्यवादियों
की गोलीयां भगत सिंह और उनके साथियों के खिलाफ चली होंगी.
असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बीके दत्त वहीं
बेंच पर बैठ गए और खुद की गिरफ्तारी दी, क्योंकि उन्हें दुनिया के सामने अपनी बात
रखनी थी. बम फेंकने के मामले की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने यह स्पष्ट करते हुए कहा
था कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज
थी, जिसे हम प्रकट करना
चाहते थे. हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है. विडंबना देखिए
कि भगत सिंह के इस क्रांतिकारी तेवर को पूंजीवादी बाजार ने अपने फायदा में
इस्तेमाल कर लिया और नौजवानों के बाजारवादी चश्मों में गांधी जी खलनायक साबित कर
दिए गए.
गांधी जी ने जब देश की आजादी की लड़ाई शुरू करने से पहले
अंग्रेजों के चरित्र को समझा उनकी साम्राज्यवादी नीतियों से लड़ने की गुलाम
भारतीयों के सामने परम्परागत युद्ध लड़ने की बजाय नए तरीके से लड़ने की बात कही, गांधी
जी कहते थे कि स्वराज का मतलब अंग्रेजों का भारत से भगाना नहीं बल्कि इस देश की
जनता को एक नई गरिमा देना है, तब भी सूट टाई पहने बुद्धिजीवी बैरिस्टर और भद्र
पुरूष मीटिंग करते थे और देश की आजादी की बात अंग्रेजों की व्यवस्था नैशनल
असेम्बली के दायरे में करते थे और आज भी दिल्ली उन्हीं विचारों की पोषक है, लेकिन
तब गांधी जी ने देश की इस मजबुरी को पहचाना और आजादी की लड़ाई इन भद्रजनों से लेकर
गांव के चौपालों तक ले गए, देश राजनीतिक रूप से एक हुआ फिर आजादी की लड़ाई समग्र
रूप से साथ लड़ी गई. देश में राजनीति विचार बैठक से गांव की पगडंडियों पर पहुंचा.
साम्राज्वादियों की ताकत आज भी कम नहीं हुई है वो आज भी दुनिया
को अपना गुलाम बनाये हैं लेकिन हम भगत सिंह की प्रशस्ति तो करते हैं लेकिन भगत
सिंह बनने की बजाय गांधी जी को गाली देकर बाजार के उस षणयंत्र का शिकार हो जाते
हैं जो हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दोनों नायकों की धुधली छवि के जरिए हमें भ्रम
में रखते हैं.
एक प्रचलित जुमला है मजबुरी का नाम महात्मा गांधी, देश की
नौजवान पीढ़ी की करियरिस्टिक मजबुरी भगत सिंह के इंकलाब के एकदम विपरित है और
गांधी जी की मजबुरी के सामने टुच्ची है ऐसे में हमारे देश के नौजवानों को सोचना
चाहिए कि प्रेम में गिरने के बाद उनकी योजना क्या होगी? वैसे कहा जाने लगा है कि अब हर कोई भगत
सिंह पड़ोस के घर में देखना चाहता है.
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