शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

कुछ खोया सा कब लगता है?

चलों ढूंढते हैं खुशियां
एक राजधानी की रात में,
रौशनी से जगमगाते
दीपावली के दीपों के साथ में.
ये दिल्ली है एक शहर,
जहां खुशियां हैं बेशुमार.
रेल है मेट्रो है, कार-बसों की है कतार.
मंदिर है मस्जिद है, क़िला और कुतुब का है मीनार.
सुख सुविधा के बाज़ार हैं
इंडिया गेट के आहाते की सैर है.
जनपथ-राजपथ पर टहलते गणमान हैं.
और साउथ ब्लॉक से दिखता पूरा हिन्दुस्तान है.

अरे! खूब खुशियां हैं यहां,
सिग्नल फ्री है ट्रैफिक, फ्लाई ओवर तमाम है.
मौजूद नहीं झुग्गी की झोपड़ियां
और बियाबान पुश्ता का मैदान है.
वाह! कहीं शोर नहीं, शांत सा महौल है.
कुछ इलाकों में बस गरीबी की चित्कार है.
वरना बाकी शहर में इत्मिनान है.
प्रधानमंत्री की दीपावली पर शुभकामना है.

शनिवार, 26 सितंबर 2009

एक लैंडस्केप की तैयारी



“इस बात का दर्दनाक अहसास आजकल सबको है कि राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत एक बनता हुआ मकान है. कोई नहीं जानता कि पूरा बन चुकने के बाद वह कैसा दिखेगा, कि वह बनते-बनते ढह तो नहीं जाएगा, कि अंतत: वह एक मकान होगा या कई बंगलों वाली कॉलोनी होगा या गंद से बजबजाता झुग्गी-झोपड़ी नगर होगा” ये पंक्तियां राजेन्द्र माथुर के एक लेख २०५७ के राष्ट्र-राज्य में बदलता १८५७ का समाज में दर्ज हैं, रज्जू बाबू ने जब यह लेख लिखा होगा भारत अपने युवावस्था में था और आज हमरा देश ६२ साल का हो गया है. लेकिन रज्जू बाबू का सवाल आज भी मौजूद है. एक तरफ तो २०१० के कॉमनवेलथ गेम्स की मेजबानी को लिए सज रही राजधानी है तो दूसरी तरफ सैकड़ो गांव कस्बे हैं जहां जरूरी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं है. क्या वाकई में हम जहां से चले थे अभी तक वहीं हैं, या फिर बजबजाते झुग्गी-झोपड़ियों के बीच कई बंगलों वाली चंद कॉलोनियों, मकान के नाम पर, इन ६२ सालों के बाद हमारी कुल जमा मुनाफा है.
सवाल बहुत दर्दनाक है और ऐसा नहीं है कि इसका अहसास सिर्फ मुझ को है, सैकड़ों ऐसे सिरफिरे hain.
इससे पहले कि उन और लोगों का जिक्र करूं रज्जू बाबू के इस लेख का समापन “आज के हिन्दुस्तान के सारे संकटों का राज शायद यह है कि हमारे पास १८५७ का सामाजिक हिन्दुस्तान है, जिसे शहरों ने, उद्योग धंधों ने, हरित क्रांति ने और लोकतंत्र के रासायनिक युद्ध ने बुरी तरह बदल दिया है और हमारे पास २०५७ का राजनीतिक हिन्दुस्तान है, जिसके अनुरूप न हमारा समाज ढला है, न जिसके साथ एकाकार होने के लिए हमारे पास संस्थाएं हैं. किसी बौने को किसी दैत्य के शरीर की तरह में आप समूचा प्रत्यारोपित कर दें और फिर उसके हाथ तुरंत लंबे हो जाए, उसका सीना चौड़ा हो जाए उसका रक्त प्रवाह मीलों लम्बी धमनियों के बीच उतना ही वेगवान हो जाए, तो बेचारे बौने को कितनी यातना भुगतनी पड़ेगी अंग्रेज एक लंबा ओवर कोट १५ अगस्त १९४७ को एक खूंटी पर टांग गए थे. जो हमारे नाप का नहीं था. अब चालीस साल से हम बेतहाशा व्यस्त हैं कि हमारा शरीर इतना बढ़ जाए कि हम उस कोट को बेडौल दिखे बगैर पहन सकें. इस प्रयास विचित्र जरूर है, लेकिन भारत के करोड़ों पढ़े लिखे लोगों ने इस प्रयास को अपने प्राणों से अधिक महत्वपूर्ण मान रखा है”.
हां! तो इस बात का सैकड़ों लोगों को कई इसके अंजाम पर चर्चा में शामिल हैं तो कई जमीन पर इस दर्द के मद्देनजर अपनी भूमिका तय कर रहे हैं, मेरी कोशिश सिर्फ इतनी है कि क्या इस दर्दनाक अहसास को साझा किया जा सकता है. क्या चंद मकानों वाले कॉलोनियों और बजबजाते झुग्गी झोपड़ियों से इतर हिन्दुस्तान के लोगों को एक मकान मिल सकता है? अंग्रेजों के छोड़े ओवरकोट के इतर कोई ऐसी सरकार मिल सकती है जो ना निरंकुश हो ना ही कुशासक. मेरे इस मकान को माया-मुलायम, लालू-मोदी जैसे कुशासकों से भय है, मेरे इस मकान को मनमोहन के नौकरशाहों और कांग्रेस के सिंडीकेटों के निरंकुशता से भय है.

शनिवार, 4 जुलाई 2009

ये देश कैसे बनता है?

१५ जून तहलका के हिन्दी संस्करण में प्रकाशित

ये देश कैसे बनता है?
बुद्धिजीवियों के चिंतन से
या नेताओं के गठबंधन से,
बैलों को हांकते हांफते किसानों के पसीने से
या घर से दूर मोर्चे पर डटे जवानों की संगीनों से,
शिक्षक के आँखों में बसे सुनहरे सपनों से
या डॉक्टर इंजीनियरों की बेहतर कल की उम्मीदों से
ये देश कैसे बनता है?

बच्चे की उमंग से
या किशोरों की हुड़दंग से,
नौजवानों के इरादों से
या बुजुर्गों के अनुभव और विचारों से,
खेतों की मेड़ों से या जंगल के पेड़ों से
गाय,बैल, भैंस बकरी या चरवाहे की भड़ों से
समंदर के किनारों से या नदियों के संगम से
कुओं से तालाबों से पर्वत या कि घाटी दुर्गम से,
आखिर ये देश कैसे बनता है?
मंदिर के घंटों से या मस्जिद के आज़ानों से
गुरूद्वारे की गुरूबानी से या गिरजा के घड़ियालों से

कुछ भी छुटा तो टूटेगा।

बच्चे, बूढ़े, हिन्दू मुस्लिम सबकी आंखों में पलता है
कोई हुआ धीमा तो रूक रूक के चलता है
सब में ही थोड़ा-थोड़ा रमता है
ये देश ऐसे बनता है...

सोमवार, 8 जून 2009

लेकिन वीपी फिर जीतेगें

चौथी दुनिया की वापसी के पहले अंक में प्रकाशित
जरा गौर से देखिए, दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र में क्या हो रहा है?
चार नवम्बर २००८ जब दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र अपने दो सौ साल के अतीत में बदलाव ला रहा था तब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अतीत को बदलने की गुस्ताखी करने वाला अपनी मौत का इंतजार कर रहा था।
बराक ओबामा अमेरिका के ४४वें राष्ट्रपति चुनें जा चुकें थे। नस्लवाद के खिलाफ शुरू किए गए जंग का ये सबसे बड़ा जश्न, जिसे उसके प्रणेता मार्टिन लूथर किंग की आत्मा शायद देख रही होगी। १९६४ में डेमोक्रटिक पार्टी के राष्ट्रपति लिण्डन जॉनसन ने उस विधेयक को पास कर दिया जिसके तहत अश्वतों को अमेरिकी चुनाव में मतदान करने का अधिकार मिला और चौवालीस सालों के बाद अमेरिका से गोरो और कालों के बीच का कम से कम वो भेदभाव मिट गया जिसमें अमरिकी संविधान उन्हें आंशिक इंसान की व्याख्या दी थी। अमेरिकी लोगों ने अपने अतीत की उन शर्मनाक करतूत जिसमें अश्वेतों को गोरों के बनिस्बत ३/५ ही इंसान बताया को भूलाकर नए बदलाव को स्वीकार लिया था।
लेकिन दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक ऐसा करने का माद्दा रखते हैं? १९७९ में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई ने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की गरज से मंडल कमीशन बनाया। जिसे दस साल तक किसी सरकार ने हाथ नहीं लगाया क्योंकि अगड़ी जातियों के ताकत के सामने ऐसा करना ना सिर्फ सत्ता से बेदखल होना था बल्कि अरसे तक खलनायक के चरित्र में रहना भी था। लेकिन एक शख्स था जिसमें अपने अतीत को बदलने का माद्दा था, जिसे मालूम था कि हिन्दूस्तान के अतीत और वर्तमान पर काबिज अगड़ी जातियां उन्हें ना सिर्फ उखाड़ फेंकेगी बल्कि अरसे तक उन्हें राजनीति की मुख्य धारा से बाहर कर देंगी। यही हुआ पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिलाकर हिन्दूस्तान के अतीत को बदलने की गुस्ताखी की।
अमरिका में अश्वेतों को वोट देने के अधिकार वाले विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रपति लिण्डन ने कहा था कि इसका खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना पड़ेगा। १९६४ से लेकर २००९ तक सिर्फ दो डेमोक्रेट राष्ट्पति चुने गए।
मंडल कमीशन के विरोधी में व्यापक आंदेलन हुए, बसे फूंक दी गई, स्कूल कॉलेजों में अनिश्चित बंदी हुई, आत्मदाह हुए, वीपी को गुस्ताखी की सजा मिली उनकी ग्यारह महीनों की सरकार गिर गई। और धीरे धीरे जनतामोर्चा का अस्तित्व समाप्त हो गया। ये और बात है कि इस गुस्ताखी के पैदाइश राजनेताओं ने राजनीति में अपनी दखल बना रखी है लेकिन वीपी के सरोकार से उनका कोई फरामोश नही है क्योंकि नेता सरकार चलाने वाला नही तकदीर को संवारने वाला होता है और पिछडे वर्ग के नेताओं में वो माद्दा नही है जो मायावती में अंबेडकर और कांशीराम को लेकर है। यहां ये उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तान का पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के नाम का प्रस्ताव उप राष्ट्रपति पद के लिए वीपी ने रखा था।
ये बिलकुल बहस का विषय हो सकता है कि ओबीसी आरक्षण किन परिस्थितियों में लागू किया गया, लेकिन इसे गलत कहना अपने अतीत से मुंह चुराना होगा। अतीत जिसमें ऊंच नीच भेदभाव, छूत अछूत की ना जाने कितनी दोगली व्यवाहर हैं। १९८२ में डकैतों के खिलाफ सरकार के विफलता के बाद वीपी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, ये सिर्फ वीपी हो सकते हैं। नैतिकता के इस पैमाने पर हमारा व्यवहार दोगला नहीं तो और क्या है? आने वाला इतिहास वीपी को उसको सम्मान देगा पूरा सम्मान देगा और तब हमारे सामने अतीत के दोगलेपन का फिर एक उदाहरण होगा, और फिर हम कहेंगे राजा नहीं फकीर था हिन्दुस्तान की तकदीर था। मुम्बई में होटल ताज आतंकवादियों के कब्जे में था, सहमा हुआ हिन्दुस्तान सिर्फ लाइव रिपोर्टिंग देखने में व्स्त था । लिहाजा २७ नवम्बर को जब वीपी का देहांत हुआ तो ये खबर दब कर रह गई... शाम को मेरी मुलाकात वीपी के ग्रीन ब्रिगेड के एक कार्यकर्ता से हो गई उसने पूरे वाकये पर कहा कि इलाहाबाद में किसी महिला ने वीपी को शाप दिया था कि जब वो मरेगें तो कुत्ता भी नही रोएगा। लेकिन वो ये नही बता पाए कि उन आशीर्वादों का क्या हुआ जो करोड़ो मांओं ने आरक्षण लागू करने के लिए दिए थे। हमे आनेवाले वक्त का इंतजार है।


दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र अमेरिका अपने अतीत की दोगलेपन को बदलने की गुस्ताखी कर चुका था, आज पैंतालीस साल बाद उसकी गुस्ताखी का नतीजा सामने है, अमेरिकी समाज ने १७८७ के उस अश्वेत इंसान को अपना राष्ट्रपति चुन चुका है। और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अतीत को बदलने की गुस्ताखी करने वाले वीपी ने इस ऐतिहासिक घटना को देखा और २७ नवम्बर को दुनिया से चला गया। लेकिन वीपी फिर जीतेगा।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

चलिए एक और प्रेरणा अमेरिका से लें...

इंडियनसीएसआर से साभार
राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने चुने जाने से पहले कहा था कि वह बढ़ती हुई घरेलू मुश्किलों और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के समाधान के लिए अमेरिकी नागरिकों की स्वैच्छिक सेवा की भावना का सहारा लेंगे। ओबामा ने अपने भाषणों में और वेबसाइट पर एक ऐसी योजना की बात की है जिसमें ऐसे कार्यक्रमों को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाएगा जिनसे अमेरिका और विदेशों में अमेरिकी नागरिकों को स्थानीय स्वैच्छिक समुदाय से जुड़ी संस्थाओं के साथ काम करने का बढ़ावा मिल सके।
वह घरेलू कार्यक्रम अमेरिकॉ में व्यक्तियों की संख्या को 2,50,000 तक बढ़ाने की बात करते हैं। इसके तहत स्वयंसेवक कम सुविधा वाले स्कूलों में शिक्षकों तथा विद्यार्थियों की मदद करते हैं। साथ ही वे जन स्वास्थ्य सेवाओं को भी और अधिक लोगों तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। ओबामा विभिन्न देशों में विविध प्रकार की विकास योजनाओं में कार्य करने के लिए पीस कॉर में स्वयंसेवकों की संख्या भी 16,000 तक बढ़ाना चाहते हैं। साथ ही मिडिल स्कूलों तथा सेकेंडरी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए सामुदायिक सेवा के लक्ष्य निर्धारित करना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि जन सेवा में विद्यार्थी जो समय लगाएंगे, उन्हें उसका क्रेडिट मिले।
ओबामा ने अमेरिका की व्याख्यान पहल यानी वॉयस इनिशिएटिव की भी बात की जिसके तहत स्थानीय भाषाओं में धाराप्रवाह भाषण देने वाले शिक्षकों, इंजीनियरों तथा डॉक्टरों को जन कूटनीति का समर्थन करने के लिए विदेशों में भेजा जाएगा।
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अपने एक भाषण में ओबामा ने कहा, ''हर उम्र, स्थान और योग्यता के लोगों से इस तरह की सेवा करने को कहा जाएगा। चुनौतियों का सामना करते वक्त अमेरिका के लोग समस्या नहीं बल्कि समाधान बन जाते हैं।'' अमेरिकी श्रम सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, 26 प्रतिशत अमेरिकी नागरिक स्वेच्छा से सुविधाओं से वंचित लोगों की सेवा करते हैं।
राष्ट्रपति चुने जाने से पहले ही ओबामा ने नागरिक सरोकारों से और अधिक जोड़ने के लिए अमेरिकी स्वैच्छिक सेवा प्रणाली को पुनर्गठित करने का सुझाव दिया ताकि अमेरिकी युवा वर्ग और अवकाश प्राप्त लोग अपनी योग्यताओं के अनुसार योगदान दे सकें। उन्होंने सुविधाओं से वंचित युवाओं के लिए ऐसे रोजगार कार्यक्रम की भी बात की जिससे इन युवाओं को सेवा के सुअवसर तथा काम करने का व्यावहारिक लाभ मिल सके। वह ऐसे कार्यक्रमों का भी विस्तार और सुधार करना चाहते हैं जिनमें 55 वर्ष से अधिक उम्र के लोग अपना बेहतर योगदान कर सकें। अपने इन कार्यक्रमों का विकास करने में ओबामा को एक नया अनुभव होगा। स्वैच्छिक कार्य राष्ट्र के इतिहास की लगभग शुरुआत से ही अमेरिकी स्वभाव का अभिन्न अंग रहा है।
अमेरिका के अनेक स्कूलों में 'समाज को लौटाएं' की संकल्पना को पाठयक्रम का हिस्सा बना दिया गया है। स्वैच्छिक कार्य को केवल विद्यार्थियों में ही नहीं बल्कि शिक्षकों, प्रोफेसरों और अन्य कर्मचारियों में भी बढ़ावा दिया जाता है। कोई वरिष्ठ विद्यार्थी किसी युवा विद्यार्थी को पढ़ा रहा हो अथवा विद्यार्थियों की टोली सप्ताहांत में किसी स्थानीय नदी की सफाई की योजना बनाने के लिए बैठक कर रही हो तो यह कोई असामान्य बात नहीं। ओबामा चाहते हैं कि मिडिल स्कूल और सेकेंडरी स्कूल साल में कम से कम 50 घंटे समाज सेवा का कार्य करें। इसके साथ ही वह यह भी चाहते हैं कि विद्यार्थी कार्य अध्ययन कार्यक्रमों में भाग लें और यूनिवर्सिटी के लिए जो कार्य वे करेंगे, उसके लिए पढ़ाई के समय में छूट दी जाए। इस प्रकार के कार्यक्रम में वे डाइनिंग हॉल और लाइब्रेरी से संबंधित जनसेवा परियोजनाओं का काम कर सकते हैं।
कॉर्पोरेशन फॉर नेशनल एंड कम्युनिटी सर्विस के अनुसार, विद्यार्थियों पर किए गए अध्ययन से यह पता लगा है कि जो विद्यार्थी स्वेच्छा से समाज की सेवा के कार्यों से जुड़े रहते है, वे आगे चल कर जीवन में भी नागरिकर कर्तव्यों का बेहतर रूप से पालन करते हैं। साथ ही उनका सामाजिक व्यवहार, प्रवृत्ति तथा आदतें सकारात्मक होती हैं। गैर मुनाफे की संस्थाएं मालिकों या निवेशकों के मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि आम लोगों की सेवा अथवा आपसी सेवा के लिए कार्य करती हैं। अमेरिका में गैर मुनाफे की सेवाएं अनेक प्रकार की हैं जिनके तहत वैश्विक स्तर पर गरीबी उन्मूलन, पर्यावरण का बचाव, वन जीवों का संरक्षण तथा एचआई-वीएड्स के रोगियों की सहायता आदि मुद्दे आते हैं। नेशनल सेंटर फॉर चैरिटेबिल सर्विसेज के अनुसार, वर्ष 2006 में अमेरिका में 14 लाख से भी अधिक गैर मुनाफे की संस्थाएं थी। ओबामा इससे संबंधित ऑनलाइन नेटवर्क भी बनवाना चाहते हैं ताकि अमेरिकी नागरिक इस प्रकार की सेवा के सुअवसर खोज सकें।
अमेरिका में आस्था-आधारित संस्थाओं के जरिए या उन संस्थाओं के लिए भी स्वैच्छिक काम करना आम बात है। इनमें विदेशों के दूरदराज गांवों में बाइबल से संबंधित सुसमाचारी मिशनों के लिए काम करना और बेघर लोगों को भोजन मुहैया कराना जैसी गतिविधियां शामिल हैं। हालांकि कुछ आस्था-आधारित संस्थाएं धार्मिक शिक्षा भी देती हैं लेकिन ऐसी अन्य संस्थाए जरूरतमंद लोगों की मदद करने तथा राहत पहुंचाने पर विशेष ध्यान देती हैं।
विश्व भर में कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। इसके तहत कंपनियां अन्य लोगों की सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरण संबंधी अपेक्षाओं के अनुसार गतिविधियां आयोजित करती है। इनमें कंपनी में निवेश करने वाले लोग भी होते हैं और आम जनता भी, जिनके मन में कंपनी की एक विशेष छवि होती है। कॉरपोरेशन फॉर नेशनल एंड कम्युनिटी सेंटर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेविड आइजनर का कहना है, ''स्वैच्छिक कार्य करने से दिल मजबूत होता है। छह करोड़ 10 लाख से भी अधिक अमेरिकी लोग जरूरतमंद लोगों की जीवन शैली में सुधार के लिए अपने आप को नि:स्वार्थ रूप से समर्पित कर देते हैं।
(लिया डो America.gov की लेखिका हैं।)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

मुंशी प्रेमचंद का हामिद और कसाब

३१ मार्च के तहलका हिन्दी संस्करण में प्रकाशित ...
बीसवीं सदी के शुरूआती सालों का दौर था। तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान अलग अलग मुल्क नहीं थे। अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम हमारे मुल्क की सामाजिक आर्थिक हालात बनारस से लेकर लाहौर तक एक ही थे। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद बमुश्किल ही हालात में कोई तब्दीली आई हो सिवाय इसके कि हम आज़ाद थे, लेकिन दो मुल्कों में बंटे हुए । जाते वक्‍त के साथ हालात में इतनी और तब्दीली आयी कि सरदार अली ज़ाफरी ने लिखा कि तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश, हम आए सुबह-ए-बनारस की रौशनी लेकर, फिर ये पूछें कौन दुश्मन है?
करीब नब्बे साल पहले एक कहानी बनारस में लिखी गई थी, जो आज नब्बे साल बाद लाहौर के करीब फरीदकोट से ना सिर्फ जुड़ती है बल्कि तमाम सवाल भी खड़ा करती है।
मुंशी प्रेमचंद की इस कहानी का नाम है ईदगाह,जिसमें एक गरीब सूरत, दुबला-पतला बच्चा है हामिद,जो अपनी दादी अमीना के साथ रहता है। हामिद का बाप हैजे की भेंट चढ़ जाता है और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था?
हामिद को बूढ़ी दादी ने भरोसा दिला रखा है उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। इसपर प्रेमचंद लिखते हैं आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह खुश है।रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद जब ईद आती है तो वो और खुश हो जाता है।
ऐसी ही परिस्थितियां अजमल कसाब (सत्ताइस नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले में शामिल) के सामने थी जब उसने घर छोड़ने का इरादा किया, बकौल अजमल के पिता आमिर कसाब अजमल को ईद के दिन नये कपड़े नहीं मिले, तो बस अजमल घर से चल गया। मुंशी प्रेमचंद की कहानी में भी आर्थिक तंगहाली और सामाजिक जरूरत की वजह से हामिद की दादी अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रोती है और बड़ी मुश्किल से मासूम हामिद को तीन पैसे दे पाती है, ईदगाह जाने और वहां कुछ खरीदने खर्च करने के लिए। पर हामिद है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाता।
दादी ने हामिद को बताया है कि उसके अब्बा कमाने गए हैं और जल्दी ही ढ़ेर सारे रूपये लेकर आएंगे। बनारस के जिस गांव लमही के मुंशी प्रेमचंद रहने वाले थे उससे आजमगढ़ कोई बीस पच्चीस किमी ही दूर होगा लेकिन बीते दशक में यदि रोजगार के लिए जिस ज़िले से पश्चिम एशिया सबसे ज्यादा लोग गए तो वो आज़मगढ़ है। ये इस बात की तस्दीक करता है कि तब और अब में फासला महज वक्त का है, और बाकी सब जस का तस है।
अजमल कसाब भी किसी से नए कपड़े मांगने नहीं गया. उसने भी किसी के मिजाज़ नहीं सहे, लेकिन उसने वो रस्ता चुना जिस को नब्बे साल के दौरान हमारे हुक्मरानों ने तैयार किया है। मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह में हामिद ने अपनी दादी के हाथ जलने से बचाने के लिए चिमटा खरीद लिया। शायद अजमल के कुकृत्य के पीछे भी ऐसा ही कुछ था.खबरों के मुताबिक काम खत्म होने के बाद कसाब के परिवार को डेढ़ लाख रूपये मिलने तय हुए थे। लेकिन ये कहानी और चिमटे की बात होती तो कोई बात थी। ये रूपये तो अपने घर की दशा सुधारने के लिए एक महाघृणित कार्य के ज़रिये कसाब के परिवार को मिलने थे। सामाजिक और आर्थिक परिवेश में तो कोई बदलाव नहीं आया वरन राजनीतिक परिवेश में आतंकवाद का मोहरा जरूर नया है जिसके एक चाल से ईद का सदभाव, इंसान का विवेक, मोहब्बत सबकुछ तिनके की तरह उड़ता रहा है।

मुंशी प्रेमचंद कहानी के अंत में लिखते हैं-अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!
कसाब भी शायद कुछ रहस्यों को नहीं समझ पाता, उसकी नजर पर लगे बेरोजगारी और सामाजिक असमानता का चश्मा उसे आंतकवादी बना देती हैं। कमोबेस ये हालात हर जगह है चाहे वो आजमगढ़ का हो बनारस का मुंबई का या लाहौर का हो। इक्सीवीं सदी के इन शुरूआती वर्षो में बनारस से लेकर लाहौर तक हालात में कोई खास फर्क नहीं है।कभी ये दोनों एक थे फिर दो मुल्क हुए और अब दुश्मन हैं, अब हैजे ने आंतकवाद का रूप ले लिया है तो पीलिया ने नफरत का और गरीबी ने तो वही रूप आज भी अपना रखा है। ऐसे सवाल खड़ा होता है कि मुंशी प्रेमचंद का हामिद अगर आज होता तो क्या करता? कसाब और सलेम को सही नही मानता लेकिन उनके जैसा बनने के लिए उकसाने वाले हालात भी तो खलनायक हैं।
एक बात और जेहन में कौंधती है कि मुंशी प्रेमचंद आज के दौर में ईदगाह को फिर से लिख रहे होते तो वो इस कहानी को क्या अंत देते। ख्याल कीजिए कि ईदगाह में हामिद की मुलाकात लश्कर के किसी कमांडर से हो जाती तो?

रविवार, 15 मार्च 2009

सिस्टम का मरहम

मेरे मामा के लड़के का एक ही उद्देश्य था, फौज में नौकरी कर देश की सेवा करना और उन तमाम देशद्रोही ताकतों को उखाड़ फेंकना जिनसे देश के भविष्य को नुकसान पहुंचता हो। लेकिन ये दिन उसके सपने, उद्देश्य, मंजिल के लिए उसके लगन का आखिरी दिन साबित हुआ।
देश का एक बहुत बड़ा तबका है जो बहुत कुछ बदलना चाहता है, लेकिन देश की मरहम लगाओ राजनीति के आगे उसका गुस्सा दब जाता है। इसे समझना जरा मुश्किल है, सो ये पंक्तियां पढ़िए---हमारे देश की सरकार बहुत चलाक है वो पहले समस्या खड़ी करती है, न्याय की आस में जमा लोगों पर लाठीचार्ज करती है, दो तीन सरकारी मुलाजिमों को बर्खास्त करती है और फिर जनता की तरफ से कोर्ट में याचिका दायर करती है न्याय के लिए...

२७ नवम्बर २००८ को हमारी अवसरवादी राजनीतिक की भटक चुकी सोच की उपज आतंकवाद ने मुम्बई पर हमला किया, तीन दिनों तक हमारा तंत्र उन दस दुस्साहसी नौजवानों से जूझता रहा जिसका सीधा प्रसारण हम टेलिवीजन पर देख रहे थे। जनता के सब्र की बाधा टूट गया राजनीति के प्रति नफरत का इजहार किया जाने लगा। मेरे मामा का लड़का भी इससे दुखी था वो लगातार गालियां बके जा रहा था। ऐसे नहीं वैसे होना चाहिए था, सरकार पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर रही है। अबतक तो जमींदोज कर देना चाहिए तमाम ऐसी बातें जो एक आम आदमी करता है। जो बातें देश के तमाम जगहों पर वो आम आदमी कर रहा था, इंडिया गेट और गेट वे ऑफ इंडिया पर खास कर। मेरा भाई भी ऐसी ही स्थिति में था चूंकि मैं उसके साथ था, तो उसे थोड़ी बहुत अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और युद्ध समस्या का समाधान नहीं है समझा रहा था। लेकिन नौजवान खून की भड़ास ललकार रही थी मानों वो एनएसजी का कमांडो होता ( जैसे की उसका उद्देश्य था) तो वो अपनी गन से पहले ही दिन सबकुछ खत्म कर देता। लेकिन ये मुमकीन नहीं था, और ये वो जल्दी ही समझ गया...इसकी सबसे बड़ी वजह इस पूरे प्रकरण में सिस्टम की तौर तरीका था तो दूसरी वजह समस्या की जड़ को पनपने देने की हमारी नीतियों की खामियां थी जो उस दौरान बात बात में मैं उसे समझा रहा था। और तीसरी वजह जो उसके सपने को तार तार कर गई वो दो पिक्चर हैं ...
एक में हमले में बचाये गए लोगों को लग्जरी बस से ले जाया जा रहा है तो दूसरी में घंटों चले ऑपरेशन के खत्म होने के बाद एनएसजी कमांडो बेस्ट की बस में अगले मिशन के इंतजार में वापस जा रहा है। बस मेरा भाई इसी पर उबल पड़ा और उसके सपने उसकी मंजिल का ये आखिरी दिन साबित हुआ।
वो आज भी मुझसे पूछता है किछ क्या सरकार के पास इतना पैसा नहीं था कि उन कमांडोज को अच्छी आरामदायक बस में वापस भेजते? जबकि दिल्ली से ये कमांडो सुबह चार बजे जागकर एअरपोर्ट पहुंचे थे जहां उनके मुम्बई आने के लिए फ्लाइट की व्यवस्था नहीं थी तो क्या उन्हें अपने स्टेशन पर आराम करने की व्यवस्था नहीं की जा सकती थी क्योंकि सामने की चुनौती के बारे में सभी को मालूम था। उसके गहरे जख्मों ने कहा, पुलिस को पैरा मिलिट्री फोर्स को और फौज को अपनी जागीर समझने वाली व्यवस्था को बदलना होगा। जनता को भेड़ बकरी समझने वाली सरकार को बदलना होगा।
लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसके जख्म यूं ही हरे रहेंगे, व्यवस्था उसके जख्म पर कब मरहम लगा देगी मुझे उसका इंताजार है।






गुरुवार, 5 मार्च 2009

किसी ने कहा 'स्लम कुत्ते'?

हाल तक स्लमडॉग मिलीनेयर को लेकर देश में काफी चर्चा रही खासकर फिल्म इंडस्ट्री और न्यूज मीडिया में, बाद में हॉलीवुड सबसे बड़े पुरस्कार और दुनिया भर में प्रसिद्ध ऑस्कर अवार्ड के आठ श्रेणियों का पुरस्कार पाने के बाद तो चर्चा संसद तक जा पहुंची, अब चुंकि संसद के कार्यवाही का सीधा प्रसारण लोकसभा टीवी के माध्यम से होता है और लोकतंत्र में जनता की आवाज उसके चुनें प्रतिनीधि होते हैं इस तर्क से ये मान लेना चाहिए कि बात अब गांव मुहल्लों तक पहुंच गई है।
बात शुरूआत से, स्लमडॉग पर बच्चन साहब की भी प्रतिक्रिया आयी और फिर प्रियदर्शन की भी और भी बड़े दिग्गजों ने अपनी नाराजगी कई कारणो से जतायी कि ऐसी फिल्म नहीं बननी चाहिए या फिर ऐसा कुछ खास नहीं है जिसकी तारीफ की जाए। मैं इसका विरोध करता हूं। एक फिल्म जब कहानी के बल पर धूम मचाती चली आ रही हो और कम से कम मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसने इसके निर्माण और कंटेंट पर सवाल खड़े किया हो सिवाय इसके कि इसकी सफलता से कही ना कहीं चिढ़े कुढ़े बड़े लोगों की अखबारों में रियेक्शन पढ़कर बयान जारी करने वाले को।
देश की तस्वीर गलत तरीके से दिखाया गया, पश्चिमी मीडिया हमारे यहां सिर्फ गरीबी देखता है। तमाम ऐसे बकवास जिसकी जरूरत नहीं है। ना जाने कितनी ऐसी फिल्में हं जिनमें धारावी के चॉल दिखाया गया है। क्या मदर इंडिया में गरीबी और उसका शोषण नहीं दिखाया गया था? क्या काला पत्थर में खान मजदूरों के साथ होने वाली ज्यादती नहीं दिखायी गई थी?ये भी तो भारत के ही दृश्य थे।कश्मीर पर ऐसी कई फिल्में बनी हैं जिनमें सेना पर सीधे तौर पर सवाल खड़ा होता है वो भला खालिद महमूद की फिज़ा ही क्यों ना हो, यहां तक की गुलजार साहब की फिल्म माचिस भी पंजाब आतंकवाद के दौरान पुलिस के क्रियाकलाप को जाहिर करती है। हाल ही में रीलिज अ वेडनसडे ने आतंकवाद के प्रति सरकार की उदासीनता दिखायी और फिर मुंबई मेरी जान में न्यूज चैनलों के खबर को लेकर संवेदनहीनता को दिखाया गया तो क्या ऐसे में इनमें फिल्मों को नहीं बनना चाहिए।
लेकिन ये भी तो सच है कि धारावी एशिया की सबसे बड़ी चॉल है और फिल्म शूट करने के लिहाजा से मुफीद जगह भी है क्योंकि यहां ना जाने कितने संघर्षशील कलाकर भी रहते हैं। तो सवाल खड़ा होता है कि फिल्म की क्या जरूरत है? अब एक फिल्म में एक गरीब बच्चा अपनी गरीबी के अनुभव से कोई करोड़ रूपये जीत लेता है तो इस पर किसी को क्या आपत्ति है। इसमें ऐसा कौन सा सिस्टम फ्ल्योर दिखा दिया कि हाय तौबा मच गया। दरअसल हमारी इंडस्ट्री नए प्रयोगों से कतराती है। यूटीवी सरीखी कुछ एक कंपनियां हैं जो लीक तोड़ने का माद्दा रखती हैं। लेकिन सितारों की माया से बाहर निकलना फिलवक्त मुश्किल है।
मजेदार बात तो ये है कि संसद में स्लमडॉग और स्माइल पिंकी के आस्कर जीतने पर मेजे थपथपाई गई, सिर्फ इसलिए कि वो भारत के संदर्भ में बनी हैं शायद। नहीं तो भारत से इसका क्या वास्ता? और रही बात स्माइल पिंकी की, तो ये डॉक्युमेंट्री देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का ही पोल खोलती है। वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पराशर ने इस पर गजब की चुटकी ली है।
जाते जाते फिल्म रे नाम स्लमडॉग पर भी लोगों ने झुग्गी वासियों को भड़काया, और वे स्लम में रहने वालों को कुत्ता बताने पर उबल पड़े और कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, फिलहाल मामला शांत है शायद किसी ने उन्हें बताया होगा कि स्लमडॉग अंग्रेजी का एक ही शब्द है। इसका कुत्ते से कुछ लेना देना नहीं है, जैसा कि मुझे भी मेरे मित्र ने बताया।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

सलाम

एक दौर था,
जब लोग उगते हुए सूरज को सलाम करते थे।
ये दौर नया है लोग
चमकते सितारे को सलाम करते हैं
बड़ा गजब का चलन है
भीड़, लोगों को रौंदती है
फिर भीड़ क्यों बनते हैं लोग?
लोग ही सवाल करते हैं।

सफलता की दौड़ में हैं सभी
आगे निकलने की होड़ में हैं
सूरज और सितारे के बीच
लोग, खुद को कामयाब कहते हैं।

अजीब खेल है,
आसमान वाले तेरा
लोग तुझे नहीं, तेरे बंदों को नहीं
खुद के डर को सलाम करते हैं।

अच्छा चलो बता दो
कि दुनिया में क्या भला है?
सच बड़ा है, झूठ भारी है
या बीच का जो है हम किसको सलाम करते हैं।